सुंदरलाल बहुगुणा और चिपको आंदोलन

र्यावरण के संरक्षण के लिए जिन लोगों ने उल्लेखनीय काम किया है,उनमें सुंदरलाल बहुगुणा का नाम ऐतिहासिक महत्व रखता है |सत्तर के दशक से कुछ पहले उन्होंने चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया |


सुन्दरलाल बहुगुणा (9 जनवरी सन 1927 - 21 मई 2021) भारत के एक महान पर्यावरण-चिन्तक एवं चिपको आन्दोलन के प्रमुख नेता थे।

1970 के दशक में पहले वे चिपको आन्दोलन से जुड़े रहे और 1980 के दशक से 2004 तक के दशक में टिहरी बाँध के निर्माण के विरुद्ध आन्दोलन से। वे भारत के आरम्भिक पर्यावरण प्रेमियों में से एक हैं।

सुंदरलाल बहुगुणा जी ने हमेशा एक ही बात कहने की कोशिश की कि पारिस्थितिकी और आर्थिकी को अलग न करें। स्थिर अर्थव्यवस्था स्थिर पारिस्थितिकी पर ही निर्भर करती है। आज अगर हमें लगता है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करके हम अपनी अर्थव्यवस्था को किसी भी ऊंचाई पर पहुंचा सकते हैं, तो हम नीचे से अपनी जमीन को खिसका रहे हैं। और वही सामने आया है। बढ़ते वैश्विक तापमान को लेकर आज दुनिया भर में जो चर्चाएं हो रही हैं, और जिस तरह से जलवायु परिवर्तन का खतरा हमारे ऊपर मंडराने लगा है, यह वही है, जिसकी तरफ सुंदर लाल बहुगुणा ने इशारा किया था।

उनकी सोच बहुत ही स्पष्ट और पैनी थी। वह इसी बात पर केंद्रित थे कि मनुष्य को अपने चारों तरफ के पर्यावरण को हमेशा बेहतर बनाने की निरंतर कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि यह जीवन के सवालों का

सबसे बड़ा उत्तर है और दुर्भाग्य से जिसकी हमने उपेक्षा की है। 

सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म नौ जनवरी, 1927 को टिहरी जिले में भागीरथी नदी किनारे बसे मरोड़ा गांव में हुआ। 13 साल की उम्र में अमर शहीद श्रीदेव सुमन के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। सुमन से प्रेरित होकर वह बाल्यावस्था में ही आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। वह अपने जीवन में हमेशा संघर्ष करते रहे और जूझते रहे। चाहे पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदलन हो, चाहे टिहरी बांध का आंदोलन हो, चाहे शराबबंदी का आंदोलन हो, उन्होंने हमेशा अपने को आगे रखा। नदियों, वनों व प्रकृति से प्रेम करने वाले बहुगुणा उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। जब भी उनसे बातें होती थीं, तो विषय कोई भी हो, अंततः बात हमेशा प्रकृति और पर्यावरण की तरफ मुड़ जाती थी। उनके दिलोदिमाग और रोम-रोम में प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना थी। उन्होंने अपने कार्यों से अनगिनत लोगों को प्रेरित किया |मुंबई के आरे मिल्क क्षेत्र तथा दिल्ली के सरोजिनी नगर में भी चिपको विचार का प्रभाव देखने को मिला |

सुंदरलाल बहुगुणा जी का सत्याग्रह सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं था। वह बड़े बांधों के विरोधी थे और उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े बांधों के खिलाफ हुए आंदोलनों में हिस्सा लिया या उन्हें प्रेरित किया। 1980 के दशक के मध्य में छत्तीसगढ़ के बस्तर के भोपालपटनम में और उससे सटे गढ़चिरौली में इचमपल्ली में प्रस्तावित दो बड़े बांधों को लेकर आदिवासियों ने बड़ा आंदोलन किया था। नौ अप्रैल, 1984 को इस मानव बचाओ जंगल बचाओ आंदोलन के तहत हजारों आदिवासी पैदल चलकर गढ़चिरौली मुख्यालय तक पहुंचे थे। 

आदिवासी नेता लाल श्याम शाह और सामाजिक कार्यकर्ता बाबा आम्टे के साथ ही इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए चिपको आंदोलन के प्रवर्तक सुंदरलाल बहुगुणा भी विशेष रूप से वहां उपस्थित थे। टिहरी से करीब 1,800 किलोमीटर दूर स्थित गढ़चिरौली में उनकी उपस्थिति ने इस आंदोलन में जोश भर दिया था। चिपको आंदोलन को लेकर जब उनसे एक साक्षात्कार में पूछा गया था कि पेड़ों को बचाने के लिए आपके मन में यह नवोन्मेषी विचार कैसे आया, तो उन्होंने जो कुछ कहा उसमें उनके जीवन का सार नजर आता है। उन्होंने काव्यात्मक जवाब देते हुए कहा, क्या है जंगल का उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार हैं जीने के आधार। इसका अर्थ है कि वनों ने हमें शुद्ध मिट्टी, पानी और हवा दी है, जो कि जीवन के लिए आवश्यक हैं। उन्होंने बताया था कि चिपको आंदोलन मूलतः पहाड़ की महिलाओं का शुरू किया आंदोलन था। ये महिलाएं नारा लगाती थीं, लाठी गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे। 

विकास के नाम पर जंगलों को काटे जाने से रोकने के लिए सत्तर के दशक में गौरा देवी सहित कई समर्पित पर्यावरण कार्यकर्ताओं के साथ बहुगुणा ने चिपको आंदोलन शुरू किया था ।

स आंदोलन के दौरान लोगों ने वृक्षों को प्यार करने तथा उन्हें बचाने का संदेश देने के लिए उन्हें अपने गले से लगाया और इसीलिए इसे 'चिपको' नाम दिया गया । यह उस कृतज्ञता की अभिव्यक्ति भी थी जो जंगल मनुष्यों को ऑक्सीजन, लकड़ी, आश्रय और दवाओं के रूप में देता है ।

बहुगुणा के करीबी सहयोगी याद करते हैं कि वह कहा करते थे कि 'प्रकृति को कुचलने से विकास नहीं हो सकता ।'

एक गैर सरकारी संगठन ‘हैस्कों’ के प्रमुख पद्म
श्री जोशी ने कहा, 'अपनी सादगीपूर्ण जीवन शैली और जीवन में एकमात्र लक्ष्य का पीछा करने वाले बहुगुणा सही मायने में गांधीवादी थे।'

जोशी ने कहा कि चिपको नेता का दृढ़ विश्वास था कि पारिस्थितिकीय स्थिरता के बिना आर्थिक स्थिरता संभव नहीं है।

जोशी ने कहा कि कोविड-19 का शिकार बने बहुगुणा की मृत्यु भी एक छिपी हुई चेतावनी है क्योंकि कोरोना वायरस संक्रमण भी मनुष्य द्वारा प्रकृति से की गयी अंधाधुंध छेड़छाड़ का ही नतीजा है ।

उनके जीवन पर सबसे पहला प्रभाव प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन का था जिन्होंने उन्हें 13 साल की छोटी सी उम्र में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। बाद में विमला से शादी के बाद उन्होंने पारंपरिक राजनीति से दूर होने तथा अपना जीवन जंगलों को बचाने के लिए समर्पित करने का फैसला किया।

टिहरी बांध के निर्माण के आखिरी चरण तक उनका विरोध जारी रहा । उनका अपना घर भी टिहरी बांध के जलाशय में डूब गया । टिहरी राजशाही का भी उन्होंने कड़ा विरोध किया जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा । वह हिमालय में होटलों के बनने और लक्जरी टूरिज्म के भी मुखर विरोधी रहे ।

बहुगुणा ने हिमालय और पर्यावरण संरक्षण को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कई बार पदयात्राएं कीं । वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कट्टर विरोधी रहे ।

नौ जनवरी, 1927 को टिहरी जिले में जन्मे बहुगुणा को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्मविभूषण तथा कई अन्य अलंकारों से सुशोभित किया गया था । चिपको आंदोलन के अतिरिक्त बहुगुणा ने टिहरी बांध निर्माण का भी बढ़चढ़ कर विरोध किया जिसके लिए उन्होंने 84 दिन लंबा उपवास भी रखा था । एक बार उन्होंने विरोध स्वरूप अपना सिर भी मुंडवा लिया था ।

विगत 21मई को उनका निधन होने से हमारी पीढ़ी ने गांधीवादी विचारधारा के एक ऐसे सेनानी को खो दिया है जो पेड़ को इंसान से कम नहीं समझते थे |पेड़ को बचाने के लिए उससे चिपक जाना संवेदना का ऐसा स्तर है जो मनो-मस्तिष्क में अहिंसा को जन्म देता है |प्रगतिशील साहित्य की ओर से महान पर्यावरणविद को भावपूर्ण श्रद्धांजलि |    

 - कुमार गगन