मोह और मोक्ष का परस्पर सम्बन्ध

 -रामकुमार सेवक  

पक्कियाँ दे नाल मिलके बैठो,कच्चेयां दे नाल रल्लो ना 

लोकी लख भुलेखे पावन,अपनी थां तो हिल्लो ना |

ये दोनों पंक्तियाँ सम्पूर्ण अवतार बाणी की हैं |इनमें संगति की महत्ता बताई गयी है कि परिपक्व सज्जनो की संगति निरंतर करने से जीवन संतुलित रहता है |निरंकारी विचारधारा को भारत में लाने वाले बाबा अवतार सिंह  जी ने पक्कों की संगति करने का निर्देश दिया है |

आज सुबह सत्संग में महात्मा ने भगत रामचन्द जी का जिक्र करते हुए कहा कि उनसे किसी ने पूछा कि पक्के सन्त कौन होते हैं तो भगत जी ने एक उदाहरण के साथ बताया कि पेड़ पर जो फल पक जाता है वह पेड़ से नाता तोड़ लेता है और अगर उसे तोडा न जाए तो स्वतः ही नीचे टपक जाता है इसी प्रकार परिपक्व व्यक्ति गृहस्थ में रहते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं |सब कर्तव्य निभाते हुए भी मोह से दूर रहते हैं |

मुझे ध्यान आया कि पिछले दिनों मैं स्वामीनारायण जी का उपदेश सुन रहा था |महात्मा कह रहे थे कि मोह का क्षय ही मोक्ष है |

अर्थात जो अपने मन से मोह को निकल देता है , वही मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी होता है |

इस प्रकार भगत जी ने जो पक्के की अवस्था बताई,परिपक्व की भी यही अवस्था है |परिपक्व चूंकि कमल के फूल की भॉँति दुनिया में ,समाज में रहकर भी दुनिया में लिप्त नहीं होते इसलिए इस जीवन के बाद मोक्ष के पात्र बनते हैं | 

मोक्ष शब्द के उदगम पर चिंतन करते हैं तो पाते हैं -मोक्ष शब्द मुक्ति का पर्याय है |मोक्ष या मुक्ति से पहले बंधन का अस्तित्व होना चाहिए |बंधन स्थूल शरीर का है,संसार का है |

संसार को छोड़ना आसान नहीं है और शरीर तो जीवन जीने के लिए अनिवार्य है इसलिए शरीर की सुरक्षा करनी पड़ती है |

यहाँ दो philosophies (दर्शन )काम करती हैं |पहला  दर्शन सन्यास का हिमायती है |सन्यास अपने आप में एक स्वतंत्र विषय है |सन्यासी होने को ज्यादातर लोग व्यवहारिक नहीं मानते |सन्यासी को आम समाज अच्छा नहीं मानता लेकिन जिन सन्यासियों की प्रतिष्ठा है,जो गणमान्य हैं,उन सन्यासियों का समाज सम्मान भी बहुत करता है| ये सम्मानित सन्यासी स्वामी विवेकानंद भी हो सकते हैं और आदि शंकराचार्य भी |

मुझे लगता है,विवाह न करना अथवा गृहस्थी त्याग देना ही सन्यासी होना नहीं है |सन्यासी के कुछ बंधन तो अवश्य कम होंगे लेकिन  मुक्त वह भी नहीं है |उसे भी खाने-पीने ,ओढ़ने-पहनने की व्यवस्था करनी पड़ती हैं |चिंता उसे भी करनी पड़ती है | मुक्ति या मोक्ष उसे भी चाहिए |इससे स्पष्ट है बंधन उसके भी हैं |

दर्शन का एक पक्ष चार्वाक का भी है |चार्वाक अन्य दार्शनिकों से भिन्न थे |उनका कहना था -

यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पिबेत्’ (

जब तक जियो सुख से जियो , उधार लो और घी पियो ) 

चार्वाक परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते इसलिए भौतिकता को ही सर्वोच्च स्थान देते हैं |क़र्ज़ लेकर भी घी पियो अर्थात तुम मनुष्य शरीर में आये हो बेफिक्र रहो |किसी परमात्मा की चिंता मत करो ,ऐश करो |जीवन का आनंद लो |(Eat,Drimk  & be merry)यह दर्शन कभी  भी लोकप्रिय नहीं हुआ क्यूंकि परमात्मा का अस्तित्व है और यह स्वीकार करने के अपने लाभ हैं |आस्तिक व्यक्ति ज्यादा विश्वासी हो सकता है लेकिन यदि उसकी आस्था यदि उथली है,सतही है तो आस्था भी कमजोर होगी |साथ ही यह भी एक तथ्य है कि  मनुष्य स्वभाव से ही डरपोक है |

यद्यपि वह बचपन में डरपोक नहीं था |निर्भीकता मनुष्य का मौलिक गुण है लेकिन वह हर प्रिय चीज का स्वामी बनना चाहता है |यह चाहत या आसक्ति उसे इतने बंधनो में बांधती है कि स्वतंत्रता का दावा करने वाला भी स्वतंत्र नहीं रह पता |आस्तिक के अपने कारण हैं,नास्तिक के अपने कारण हैं लेकिन भी ज्यूँ का त्यूं | इस प्रकार चार्वाक का अनुयाई भी मुक्त नहीं है |डर उसे भी है सब दिन मौज -मस्ती से भरे क्यों नहीं होते ?

जिस दर्शन को ज्यादातर लोग मानते हैं वह पुनर्जन्म में विश्वास रखता है |वह मानता है कि जीवों की चौरासी लाख योनियाँ हैं |जन्म-जन्मांतर का यह बंधन ही असली बंधन है इसलिए यह छूटने का उपाय करना ही मोक्ष पाना है |

मुझे लगता है कि सबसे बड़ी समस्या मोह की है |निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी कहा करते थे कि-जितनी गहरी आसक्ति उतना गहरा दुःख |इस दृष्टि से जीवन को देखते हुए वे  गीता के अनासक्ति भाव को अपनाने की बात कहते थे | 

बाबा जी कहा करते थे कि न तो आसक्ति और न ही विरक्ति बल्कि अनासक्ति |अनासक्ति को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-जिस प्रकार बैंक का केशियर होता है |किसी दिन ज्यादा पैसा जमा हो जाये तो वह बहुत खुश नहीं हो जाता क्यूंकि वह जानता है कि यह पैसा बैंक का है |उसे तनख्वाह उतनी ही मिलेगी जो तय है |

इसके विपरीत ,किसी दिन बैंक में धन कम जमा हो तो वह दुखी नहीं हो जाता चूंकि उसे पता होता है,उसे तनख्वाह वही मिलेगी |इस प्रकार बैंक का केशियर अनासक्त भाव को स्पष्ट करता है |वह अपनी जिम्मेदारी का सही तरह निर्वाह कर रहा है और हानि-लाभ से निरपेक्ष है |

यह निरपेक्षता ही मनुष्य को मोक्ष तक पहुंचाती है |परिपक्व लोगों की संगति इस अवस्था को बनाये रखने में हमारी मदद करती है इसलिए महात्मा ने कहा कि अपनी संगति का विश्लेषण करो और जो व्यक्ति आपकी संतुलित अवस्था में बाधा बने उसे बढे हुए नाखूनों की भांति त्याग दो | परमेश्वर और मृत्यु को सदा याद रखो |