मुझे किसी ने एक समारोह में आमंत्रित किया जबकि वह लॉकडाउन का दौर था |समारोह आयोजित करने पर सरकारी रोक थी तो मैंने क्षमा मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि रोग से क्यों डरते हो ,बचाने वाला निरंकार है |तर्क नजबुत था लेकिन मैंने कहा,यह रोग भी तो निरंकार ने ही पैदा किया है,हम लोगों के वश का यह काम नहीं है |
मुझे धार्मिक इतिहास का यह प्रसंग याद आ गया -कहते हैं कि वशिष्ठ जी ने अपने शिष्यों को समझाया कि हर जीव में परमेश्वर है इसलिए भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है |
शिष्यों ने यह सन्देश सुना और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण किया |
हुआ यह कि शहर में एक हाथी पागल हो गया |सामने से सब शिष्य तो इधर-उधर हो गए लेकिन एक शिष्य वहीं स्थिर रहा |परिणाम यह हुआ कि हाथी ने सूंड में लपेटकर पटक दिया |बहुत चोट आयी |
अगले दिन शिष्य ने गुरु जी से शिकायत की कि जब सब जीवों में परमेश्वर है तो हाथी ने मुझ पर आक्रमण क्यों किया ?
गुरु जी बोले कि क्या तुम्हें महावत की चेतावनी नहीं सुनाई पडी जो हाथी के ऊपर बैठकर सावधान कर रहा था कि हाथी पागल हो गया है,एक ओर हट जाओ |
वो तो महावत बोल ही रहा था लेकिन हाथी के रूप में जो परमेश्वर था ,उसे मुझ पर आक्रमण नहीं करना चाहिए था |
गुरु जी बोले कि हाथी में तुम परमेश्वर को देख रहे हो,लेकिन महावत के रूप में जो परमेश्वर सावधान कर रहा था ,उसमें तुम परमेश्वर को मानने को तैयार नहीं हो |यह दोहरा मापदंड क्यों ?
यही कठिनाई है,हम दूसरों की तरफ अंगुली उठाने में जरा भी देर नहीं लगाते और अपने आत्म को ज़रा भी नहीं टटोलते जबकि कबीरदास जी कहते थे-जब दिल खोजा आपना,मुझसे बुरा नहीं कोय |
कल एक मई को मुरैना में धर्मप्रेमियों से वार्तालाप करते हुए ध्यान आ गया कि उन सज्जन, जिन्होंने मुझे आमंत्रित किया था अपने आयोजन के जोश में कोरोना के प्रोटोकॉल की उपेक्षा कर रहे थे,जबकि प्रशासन की तरफ से भीड़ इकट्ठी करने से रोका गया था |उनसे मैंने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि प्रशासन यदि मास्क लगाने,भीड़ से बचने तथा थोड़ी -थोड़ी देर में हाथ धोने के लिए निर्देश देता है तो इन निर्देशों को मानना चाहिए |
यही मानना चाहिए कि ये निर्देश हमारे लाभ के लिए हैं |यदि कोई आदेश गुरु के जीवनदायी वचनो को मानने में बाधक है तो हमें उससे तो बचना चाहिए लेकिन महामारी से बचने के लिए जो निर्देश दिए जाते हैं,वे हमारे ही लाभ के लिए हैं इसलिए उनका पालन करना चाहिए |गुरु के आदेश उनमें बाधक नहीं है |
एक मई को चर्चा का विषय था-श्रद्धा और विश्वास |ध्यान आया कि श्रद्धा और विश्वास तो माध्यम हैं- मानव समाज से जुड़ने के लिए |
श्रद्धा और विश्वास में कोई खराबी नहीं है लेकिन प्रश्न है कि श्रद्धा किसके प्रति हो ?श्रद्धा से पहले एक अस्तित्व की उपस्थिति आवश्यक है जो स्वयं श्रद्धालु से ज्यादा सक्षम है |
भक्तों के लिए ऐसा अस्तित्व है -भगवान |भगवान,जो ज्यादातर लोगों के लिए एक काल्पनिक अस्तित्व है | श्रद्धा व् विश्वास से पहले भगवान के अस्तित्व का ज्ञान होना चाहिए और यह ज्ञान इतना जीवंत होना चाहिए जितना कि आकाश में चमकता सूर्य जीवंत है |यहाँ साकार सत्गुरु की आवश्यकता अनुभव होती है |भगवान की अनुभूति यदि सूर्य की भांति जीवंत है तो इस स्थिति में श्रद्धा और विश्वास खुद-ब-खुद पैदा हो जाते हैं |खुद- ब- खुद जो विश्वास पैदा होता है वह निहायत मजबूत होता है |
विश्वास का विस्तार बहुत है |ध्यान से देखें तो पाएंगे कि यह तो एक वटवृक्ष है जिसकी शाखाएं हर उस व्यक्ति तक जाती हैं ,जिससे हमारा वास्ता पड़ता है |विश्वास तो सम्बन्ध रूपी दीपक का तेल है |
जिस पर जितना विश्वास होता है,सम्बन्ध उतना ही मजबूत होता है |
आज जबकि हम ऐसे वातावरण में जी रहे हैं ,जिसमें संतान तक माता-पिता पर विश्वास करने को तैयार नहीं है |ऐसे अविश्वास भरे वातावरण में श्रद्धा और विश्वास का गुण जिसमें है,वह संपन्न है और इस दुनिया का अस्तित्व बचाने के लिए ऐसे संपन्न लोगों को बचाना ही होगा चूंकि-विश्वास ही इंसान है,विश्वास ही भगवान है |