समर्पण दिवस (13 मई) पर विशेष मनुष्य बनने की प्रक्रिया है धर्म - बाबा हरदेव सिंह जी ने कहा था

बाबा हरदेव सिंह जी पर मैंने बहुत लिखा है लेकिन उनके गुणों के महासागर में दृष्टि डालने पर लगता है कि जैसे अभी तो गहराई में उतरा ही नहीं |अभी तो सतह पर ही तैर रहा हूँ |कबीर दास जी कहते हैं-

जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ..

मैं कबीरदास जी की बात को मानकर बाबा हरदेव सिंह जी  को जानने का प्रयास कर रहा हूँ |

कबीर जैसे युगदृष्टा की बात मानी ही जानी चाहिए लेकिन यह एक विडंबना ही है कि कबीर के लाख कहने के बावजूद हमारे देश में मंदिर -मस्जिद के नाम पर दंगे -फसाद बिलकुल आम हैं |इसका अर्थ है कि दार्शनिकों तथा क्रांतिकारी युगदृष्टाओं के पास अनुयाइयों की भारी कमी होती है |

इस दृष्टि से बाबा हरदेव सिंह जी का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि उनके पास अनुयाइयों की कोई कमी नहीं थी |जहाँ भी वे जाते थे निरंकारी श्रद्धालु ही नहीं बल्कि आम लोग भी बड़ी संख्या में पहुँचते थे |

यहाँ एक शब्द और आ गया -श्रद्धालु |बाबा हरदेव सिंह जी के श्रद्धालु निरंकारी मिशन के बाहर भी थे |इसका परिचय मुझे अपने मित्र निरंकार दत्त जी से मिला |उन्होंने बताया-सेवक जी,खतौली(उत्तर प्रदेश ) में मैं एक ढाबे पर चाय पीने के लिए रुका था |काफी लोग थे वहां |आप तो जानते ही हैं कि तथाकथित गुरुओं के बारे में लोग कैसी-कैसी बातें करते हैं |वे लोग बोल रहे थे और मैं चुपचाप सुन रहा था |

चर्चा ज्यादातर विपरीत ही थी कि एक आदमी बोला कि एक गुरु इन सबसे अलग हैं |उनका आश्रम बुराड़ी के पास दिल्ली में है |मैं उनके सत्संग में गया हूँ ,उनकी माता और पत्नी भी उनके साथ बैठती हैं |उनके चेहरे का नूर ही कमाल है,और उनके वचन जैसे जल की शीतल धारा |मन करता है,सुनते ही जाएँ |

निरंकार दत्त जी ने जिस इंसान का जिक्र किया वह बाबा हरदेव सिंह जी का एक श्रद्धालु श्रद्धालु मात्र था ,उन्का अनुयाई नहीं था |गुरुओं -महापुरुषों-दार्शनिकों  के पास अनुयाई अक्सर होते ही नहीं,श्रद्धालु लाखों होते हैं |आइये इसके कारण को समझें |

मुझे ध्यान आ रहा है कि ज्यादातर दार्शनिकों के उपदेश गूढ़ होते हैं,आम इंसानो की  समझ में ही नहीं आते लेकिन बाबा हरदेव सिंह जी वैसे नहीं थे,वे हंसी -हंसी में ज्ञान प्रदान कर देते थे |वे स्वयं को दार्शनिक मानते भी नहीं थे इसलिए मैं की बजाय दास शब्द का प्रयोग करते थे |मुझे लगता है कि वे स्वयं को परमात्मा का एक  दास कहते थे |

मुझे जीवन में मात्र एक बार उनके साथ एक कल्याण यात्रा में जाने का अवसर मिला है,वर्ष  2000 में | वह फरवरी का महीना था |बिहार और झारखंड का संयुक्त राज्यस्तरीय सन्त समागम गया (बिहार )में आयोजित किया गया था |

गया बौद्धों और जैन धर्मावम्बियों का प्रसिद्द तीर्थस्थल है |इस यात्रा में बाबा जी कोलकाता से गया आये थे |

बंगाल और बिहार की परिस्थितियों में काफी अंतर था |बंगाल अपेक्षाकृत शांत था जबकि बिहार में कानून व्यवस्था की समस्या थी लेकिन बाबा जी जहाँ भी जाते थे हर्षोल्लास का वातावरण ही देखने को मिलता था |उनकी उपस्थिति मात्र वातावरण को शांति और प्रेम से भर देती थी इसलिए हमें कोई चिंता नहीं थी |

गया महात्मा बुद्ध की बोध भूमि है |बाबा जी ने समागम में बड़ी संख्या में आये जनसमूह से सहज संवाद कायम कर लिया |उन्होंने मानवता और प्रेम का विराट विजन हम सबके सामने रखा लेकिन बाबा जी जानते थे कि मानवता और प्रेम का मार्ग अपनाने के लिए नीयत की स्वच्छता चाहिए |यही कमी आसान काम को भी कठिन बना देती है |उन्होंने एक रोचक प्रसंग के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट की |उन्होंने कहा कि दुनिया में हर प्रकार के लोग हैं,कुछ भोले हैं तो कुछ चालाक भी हैं |

बाबा जी ने प्रसंग में कहा कि एक गांव के रास्ते पर  दो आदमी खड़े थे जो स्वभाव से शरारती थे |वे आपस में बात कर रहे थे कि बहुत समय से किसी को पीटने का मौका नहीं मिला |

उनमें से एक बोला- इसमें क्या मुश्किल है,सामने से यह जो आदमी आ रहा है,इसे पीट देते हैं |

दूसरा बोला कि  -कुछ वजह भी तो होनी चाहिए ?

पहला बोला- सामने जो सूरज चमक रहा है,मैं पूछूंगा कि -यह क्या है ?अगर यह सूरज कहे तो तुम पीट देना और यदि कुछ और बताये तो मैं पीट दूंगा |

आने वाला भी उनकी बॉडी लैंग्वेज से समझ गया था कि आदमी कुछ ठीक नहीं लग रहे |वह भी सचेत हो गया |वह जब पास आया तो एक ने पूछा -यह क्या है ?

वह इंसान सहजता से बोला- भाई साहब ,मैं तो इस गांव में पहली बार आया हूँ इसलिए मुझे कुछ पता नहीं और सीधे रास्ते गांव में चला गया |

यह प्रसंग सुनकर हम सबको हंसी आयी और हमने बाबा जी के आशय को इस रूप में समझा कि शरारतियों  से बचकर निकल जाना चाहिए ,उनसे उलझने की ज़रुरत नहीं है |

जनसाधारण के लिए यह एक बड़ा सबक था कि छोटे छोटे सवालों को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें |बाबा जी अक्सर कहते थे कि छोटी-छोटी बातों में उलझने की बजाय उन्हें दरगुजर कर देना चाहिए |

मानवता और प्रेम को बनाये रखने के लिए अहम् को स्वयं पर हावी नहीं होने देना चाहिए | 

बाबा जी का सन्देश बहुत स्पष्ट था -वे कहते थे कि धर्म का काम जोड़ना है ,तोडना नहीं |उनका कहना था कि धर्म वह प्रक्रिया है,जिससे मनुष्य,मनुष्य बनता है |इस प्रकार उन्का धर्म प्रगतिशील धर्म था जिसे अपनाने की कोशिश भी की गयी |उनके प्रवचन खूब लोकप्रिय हैं | 

प्रस्तुति - रामकुमार 'सेवक'