बे-मौसम की बाते छोड़ो, मौसम में भी कहाॅं खिले,
जितने सीधे -सादे थे हम, उतने उलझे लोग मिले,
जो साथ हमारे रहते थें, हर बात पे अपना कहते थे,
दुश्मन के दरियाॅं होकर वो, मोजों में हमारी बहते थे,
लेकिन जब हम पे राज खुला, वो पां से सर तक रहे हिले,
जितने सीधे -सादे थे हम, उतने उलझे लोग मिले,
बात बुर्जुगों ने हमको, जो बचपन में बतलाई थी,
सच पूछो वो सारी बातें, आज सामने आई थी,
इस दुनियाॅं में अच्छाई के ’’जतन’’ किसे मिलते हैं सिले,
जितने सीधे -सादे थे हम, उतने उलझे लोग मिले,
लगता है हम अपने दिल को गलत हाथ में दे आये,
जिन्हें रास्ता बतलाया, वो रस्ते पर हैं ले आये,
फिर भी उसकी गद्दारी पर, दिल में नही है तनिक गिले,
जितने सीधे -सादे थे हम, उतने उलझे लोग मिले,
मुझे देखकर सब कहते हैं, रहता हरदम एैठा हूॅ,
ताने सुन-सुनकर मै लाखों, पत्थर बन कर बैठा हूॅं,
कोशिश सबने बहुत करी, अरमान हमारे नही जिले,
जितने सीधे -सादे थे हम, उतने उलझे लोग मिले,
कवि:-
अश्वनी कुमार 'जतन'
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश