कल एक सशक्त वाक्य पढ़ने को मिला ,लिखा था-ज़िंदगी जीना सिखाये बिना मरने नहीं देती |वाक्य ने गहरा प्रभाव छोड़ा लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी हाजिर हो गया कि क्या हर वो व्यक्ति जो शरीर त्याग चुका है जीने की कला सीखकर ही इस दुनिया से विदा हुआ है |
यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती क्यूकि अभी कुछ ही समय पहले बहुचर्चित निर्भया कांड के दोषियों को बहुत मुश्किल से फांसी दी गयी |अंतिम समय तक दोषियों का वकील उन्हें बचाने में लगा हुआ था |ऐसे -ऐसे तर्क उसने ढूंढे कि लग रहा था कि दोषी अंततः रिहा हो जायेंगे और उस पीड़िता की आत्मा अतृप्त ही रह जाएगी |सोचने की बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की बदनामी के सबब बने इस कांड को सरंजाम देने वाले लोग क्या अंत में जीवन जीने की कला सीख चुके थे,ऐसा लगता तो नहीं है |
यह कांड आजकल इसलिए सुर्ख़ियों में है चूंकि इस दिल्ली क्राइम के नाम से जो फिल्म बनी उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर....अवार्ड से पुरस्कृत किया गया है |
हमारा मुद्दा यह है कि क्या जीवन जीने की कला वे अपराधी सीख चुके थे ऐसा लगता नहीं है चूंकि पीड़िता के बुजुर्ग माता-पिता ,जो अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए पूरे मन से कटिबद्ध थे,क्या उनके प्रति अपराधियों के मन में थोड़ी -बहुत सहानुभूति पैदा हुई थी चूंकि सहभूति एक मानवीय गुण है तथा जीवन जीने की कला,जिसे कहते हैं उसमें संवेदनशील होना भी एक गुण है |
सुल्ताना डाकू, मलखान सिंह, तहसीलदार सिंह, फूलन देवी आदि कितने ही ऐसे लोग थे जो विभिन्न लोगों की प्रेरणा से अपराध जगत से बाहर निकले और सार्वजानिक सेवा के पदों पर भी रहे लेकिन इनकी संख्या अत्यंत सीमित है |
लोकनायक जय प्रकाश नारायण और आचार्य विनोबा भावे आदि के प्रेरणा से इन लोगों का ह्रदय परिवर्तन हुआ और ये लोग परिवर्तित और सकारात्मक रूप में नज़र आये लेकिन हर इंसान का ह्रदय मृत्यु से पहले सकारात्मक रूप में परिवर्तित हो जाए,ऐसा कोई प्रमाण नहीं है |
यद्यपि एक शायर ने इंसान पर व्यंग्य करते हुए लिखा है -
ठोकर खाके
भी न सम्भले,यह है इन्सां का नसीब
फ़र्ज़ निभा देते हैं,राह के पत्थर अपना |
यह एक अटल सच्चाई है कि ज्यादातर लोग न तो ठोकरों से बचते हैं और न अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन कर पाते हैं |यही तो विडंबना है कि मूक पत्थर तक उसे सम्भलने का सन्देश देते हैं और जो इंसान है,अनेकों क्षमताओं से युक्त है वह सम्भलने को तैयार नहीं है |
- रामकुमार सेवक