किसान का दर्द


जो लोग शहरों में रहते हैं उनमें से ज्यादातर को यह  तथ्य  मालूम नहीं है कि जिन सब्जियों को हम दिल्ली में चालीस से पचास रूपये किलो खरीदते हैं ,खेत में फसल पैदा करने वाले धरतीपुत्रों को उस सब्जी के दस से बीस रूपये प्रतिकिलो भी नहीं मिल पाते |पिछले दिनों मध्य प्रदेश के किसानो को अपनी उपज नष्ट करते देखा गया चूंकि उन्हें उनकी लागत पर कोई लाभ नहीं मिल रहा था |यह तो सब्जी उत्पादक किसानो की बात हुई लेकिन बड़ी जोत वाले किसानो की स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है |

 26 नवम्बर 2020 को हरियाणा और पंजाब के किसान अपनी मांगों के समर्थन में अर्थात विगत दिनों आनन्-फानन में पास कराये गए भारत सरकार के तीन कृषि विधेयकों को वापस कराने के लिए दिल्ली आये |

पिछले पांच दिनों में इतनी सर्दी के बावजूद और सरकार द्वारा उनके रास्ते में गड्ढे खोदे जाने और ठन्डे पानी की बौछार छोड़े के बावजूद दिल्ली में किसान अपनी मांगों के समर्थन में डटे हुए हैं |आंदोलनकारी किसानो की मांगे कितनी जायज़ अथवा नाज़ायज़ हैं उसके अपने तर्क-वितर्क हो सकते हैं लेकिन पंजाब व हरियाणा के आते हुए किसानो को जिन हालातों अथवा बाधाओं का सामना करना पड़ा वे असामान्य है चूंकि किसानो के रास्ते में गड्ढे खोद दिए गए और उन पर ठन्डे पानी की बौछार की गयी ताकि वे दिल्ली में प्रवेश न कर पाएं |प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में ऐसा क्यों गया,हम लोगों की आँख खोलने के लिए काफी है |स्पष्ट है कि सरकार प्रजातंत्र की चादर तो अवश्य लपेटे हुए लेकिन दिल से इसके विपरीत पक्ष में खड़ी हुई लगती है | 

दिसंबर शुरू हो चुका है,मौसम ठंडा है और ऐसे सर्द मौसम में किसी भी इंसान पर पानी की बौछार करना अमानवीय है |कोई भी इंसान कह सकता है कि ऐसे ठन्डे मौसम में किसानो को यहाँ आना ही नहीं चाहिए था ,सोचने की बात यह है कि मौसम की मार से बचने के लिए हमें शहरों में विभिन्न गर्म कपड़ों का सहारा लेना पड़ रहा है,ऐसे में किसानो पर पानी की बौछार की जा रही है ताकि वह सरकार तक पहुंच ही न सके| यह अमानवीय व्यवहार करने की छूट कौन दे रहा है ,ये वही लोग हैं जो जय जवान,जय किसान का नारा लगाते हैं और किसानो के हित सुरक्षित रखने का दावा करते हैं |फिर प्रश्न पैदा होता है कि किसानो को सरकार से आपत्ति क्यों है ?

26 सितम्बर 2020 को केंद्र सरकार ने तीन महत्वपूर्ण बिल संसद में पेश किये और उन्हें जल्दबाजी में ,पर्याप्त चर्चा किये बिना संसद से पास करवाकर उन्हें कानून का रूप दे दिया गया | सरकार का कहना था कि इन कानूनों के पास होने के बाद किसानो को अपनी फसल कहीं भी बेचने का अधिकार मिल गया है |

यह बात हम लोगों को बहुत आकर्षित करती है लेकिन किसान संगठनों ने शुरू से ही इन कानूनों का तीव्र विरोध किया ,ऐसे में सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये कि विधेयक पास करने से पहले पर्याप्त चर्चा क्यों नहीं की गयी |सरकार को जाने क्या जल्दी थी कि उसने न संसद में विरोध की परवाह की और न किसानो के विरोध की परवाह की और विधेयकों को पारित कर दिया और जैसी कि सरकार की आदत है हर चीज को इवेंट बनाकर पेश करने की,ऐसा लगा जैसे सरकार किसानो को जन्नत की ज़मीन पर लाकर खड़ा कर देना चाहती है लेकिन किसान और उनके नेता ज़न्नत की ज़मीन पर उतरने के लिए तैयार नहीं हैं आखिर पूरा मामला क्या है ,जिस पर मैं चर्चा करना चाहता हूँ | 

वास्तविकता यह है कि मामला उलझा हुआ है |अभी तक जिस ज़मीन पर किसान का मालिकाना हक़ है कागज़ों में तो उसका हक़ वैसा ही रहने वाला है लेकिन भविष्य में किसान को कॉर्पोरेट घरानो की ज़रूरतों के हिसाब से फसल उगानी होगी |यह हो सकता है यह बात स्पष्ट न कही गयी हो लेकिन भविष्य में कृषि उपज खरीदने की वर्तमान व्यवस्था में मुनाफाखोरों के प्रवेश से किसान धीरे -धीरे इस अवस्था में आ जायेगा कि कॉर्पोरेट घरानो पर पूरी तरह निर्भर हो जाये और सरकार उसके कल्याण से पूरी तरह पल्ला झाड़कर उसे कॉर्पोरेट घरानो की दया पर छोड़ दे | 

किसान नेता कहते हैं कि हालात इस प्रकार के हैं कि किसान के सर पर जैसे एक टूटा हुआ छप्पर है |कृषि उपज खरीद की व्यवस्था संतोषजनक नहीं है ,जिसकी तुलना टूटे हुए छप्पर से की गयी |सरकार ने उस छप्पर को तो मजबूत नहीं किया लेकिन उसे हटाकर एक तरफ रख दिया |

सरकार कहती है कि हमने टूटे हुए छप्पर से किसान को मुक्त कर दिया लेकिन किसान कहता है कि भले ही टूटी हुई थी लेकिन सिर पर छत तो थी |

सरकार को उपज खरीद के नेटवर्क को मजबूत करना चाहिए था लेकिन सरकार ने जुकाम के स्थान पर बुखार पैदा कर दिया है| 

किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी लिखित में मिलनी चाहिए ,यह उसका अधिकार है |भारत सरकार चूंकि प्रजातंत्र की व्यवस्था की सरकार है इसलिए किसानो की मांगों  पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए और यदि किसान मानते हैं कि विधेयकों से वे असुरक्षित हो गए हैं तो इन विधेयकों को पर अड़े नहीं रहना चाहिए चूंकि प्रजातंत्र में सरकार  जनता  की अभिभावक तो  हो सकती है,मालिक नहीं |अंततः मालिक तो जनता ही है |       

- रामकुमार सेवक