कविता
बेटा पैसे खूब कमाना
लोगों की परवाह न करना, सही लगे जो कर जाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
पैसा जब तक पास रहेगा, हर कोई तुझको जानेगा,
नहीं रहेगा पैसा तो, अपना भी ना पहचानेगा
पैसे की चाहत मेें पड़ कर, मज़लूमों को नहीं सताना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
भूले से भी कभी ना पड़ना, धरम भरम के चक्कर में,
क्यूंकि साबुत कोई बचा ना, इन दोनो की टक्कर में,
जो भी काम करो तुुम उस में, दिलो-ओ-जान से लग जाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
दुनिया वालों की नज़रों से, दूर सदा मज़बूरी रखना,
जो भी ज्यादा मीठा बोले, उससे थोड़ी दूरी रखना,
केवल अपने दिल की सुनना, सब्ज़बाग में ना आना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे, ज्ञान बहुत जो बाचेंगे,
अपनी चतुराई से तुमको, हर पहलू से जांचेंगे,
उनका केवल गुण ही लेना, ना उनके जैसा बन जाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध ला,े बेटा पैसा खूब कमाना,
पैसा जब भरपूर रहेगा, हर कोई पास बिठायेगा,
दूर-दराज़ का शख्श भी अपना, रिश्तेदार बताऐगा,
उनसे बेशक बाहर मिलना, ना भूले से घर लाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
दूनिया के हर एक ताले का, केवल पैसा चाभी है,
मैंने देखा है काबिल पर, पैसे वाला हावी है,
पैसे वाले के चगुंल से, हरदम अपनी जान बचाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध ला,े बेटा पैसा खूब कमाना,
अपने दम पर ही तुम बेटा, राज दिलों के खोल सकोगे,
पास तुम्हारे पैसा होगा, तब तुम खुल कर बोल सकोगे,
पर फिजूल ना खर्चा करना, पैसा थोडा सदा बचाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
पैसा पल्ले होगा तो, मुश्किल आधी हो जाएगी,
जिससे प्यार करोगे उससे, झट शादी हो जाएगी,
पैसे के बिन काम रूके ना, तुम ऐसे हालात बनाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
सच्ची बात हमेशा बेटा, थोड़ी कड़वी होती है,
इंसानो की कदर नही, इज्जत पैसे की होती है,
मिल कर तुमसे दिल खिल जाये, ऐसा तुम किरदार बनाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो, बेटा पैसा खूब कमाना,
पर पैसे की होड़ में बेटा, मानवता को भूल न जाना,
खुद से ना समझौता करना, ‘‘जतन‘‘ कभी ना पीठ दिखाना,
कारण खुशियों का तुम बनना, औरों के घर खुशियां लाना,
एक बात तुम गाँठ बाँध लो बेटा पैसा खूब कमाना,
नज़्म - 1
कैसे?
सोच रहा हूँ खुद को तेरी, सोच मुताबिक ढालू कैसे,
तूने इतने जख्म दिए हैं, आखिर इन्हे सँभालु कैसे?
तेरी-मेरी सोच में अंतर, फर्श के जानिब अर्श का है,
लेकिन तेरे लिए ये मसला, नही खुशी न हर्ष का है,
अपनी खुद्दारी को तेरी, जिद के तले दबा लूँ कैसे,
तूने इतने जख्म दिए हैं, आखिर इन्हे सँभालु कैसे?
जो समझाना मै चाहूँ वो, तुझे समझ में आये ना,
गीत, गजल और नज़्म हमारी, कभी भी तुमको भाये ना,
जज़्बातों से हार मान के, खुद को यहां बचा लूँ कैसे,
तूने इतने ज़ख्म दिए हैं, आखिर इन्हे सँभालु कैसे,
जिनके आ जाने से मेरे, जीवन में गुलजार हुआ था,
जिन्हें देख कर लगता था कि, शिद्दद वाला प्यार हुआ था,
अब ये हैं हालात मै उनको, सोच रहा हेँू टालूँ कैसे,
तूने इतने ज़ख्म दिए हैं, आखिर इन्हे सँभालु कैसे?
नए ज़माने की लड़की वो, अपने धुन में रहती है,
मुझको खुश करने को भी वो, मुझमें ढलना कहती है,
’’जतन’’ के दिल के मसले हैं ये, इनको दिल पे ना लूँ कैसे,
तूने इतने ज़ख्म दिए हैं, आखिर इन्हे सँभालु कैसे?
नज़्म - 2
कर देगा
बेमतलब का भेजा, तारी कर देगा,
तुमसे बातें, इतनी सारी कर देगा,
उसको है तालाश, किसी के एैब दिखें,
फिर वो खडा एक, मुद्दा भारी कर देगा,
उसको मतलब केवल, नुक्ता-चीनी से,
मुॅह वाली जुबान, दो-धारी कर देगा,
उसकी ख्वाहिश है, उसको ही सजदे हों,
नही किया तो, फतवा जारी कर देगा,
अपना मत समझो, वो ”जतन” मुहाजिर है,
महफिल में हर बात, तुम्हारी कर देगा,
उसका मकसद केवल, थोडी आग लगे,
इसके लिये वो, खूब तैयारी कर देगा,
- शायरः-
अश्वनी कुमार 'जतन'
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश