जब देश आज़ाद हुआ तो लोगों में देश के लिए कुछ करने का शौक था |उस समय के नेता जन जीवन के ज्यादा करीब थे |लोग भी उनके पास बेहिचक चले जाते थे |धीरे -धीरे सत्ता सेवा की बजाय सत्ता की पर्याय हो गयी और सत्ता की प्राप्ति ही राजनीति का एक मात्र लक्ष्य हो गया |
प्रजातंत्र में नागरिक और सत्ता के बीच कोई किलानुमा दीवार नहीं होती चूंकि हर नागरिक मतदाता के रूप में सत्ता के निर्माण में भागीदारी निभाता है |
दिक्कत की बात यह है कि राजसत्ता के तेवर अब गुप्त नहीं रहे |आज़ादी से पहले राजसत्ता किसी और देश की थी जिसके कारण नागरिक सिर्फ प्रजा था |प्रजा का काम था -हर दुःख को अपने भाग्य का परिणाम मानना |इस दृष्टि से सत्ताधारी गलतियां करके भी अपराधबोध से बचा रहा |
राजनीति में महात्मा गाँधी के अवतरण के बाद आम नागरिक भी यह यथार्थ समझने लगा कि जीवन के दुखों को अपने भाग्य का परिणाम मानना मूर्खता है |सत्ता को मनमानी करने की छूट नहीं दी जा सकती |
महात्मा गाँधी राजनीतिज्ञ तो थे लेकिन उनका आधार था -सेवा |उन्होंने आम लोगों को जाग्रत करके आम लोगों को अपनी राजनीति का माध्यम बनाया ,जिसके कारण सत्ता के रथ के पहिए कमजोर हुए और और शासन का सूत्र हम भारतीयों के हाथों में आ गया |दो सौ वर्षों की निष्कंटक सत्ता ज़मीन पर आ गिरी ,जिसका जश्न हम हर साल पंद्रह अगस्त को मनाते हैं |
आज़ादी के 73 वर्षों में अपराधी तत्वों ने सत्ता में इतनी सफाई से घुसपैठ की है कि नैतिकता का कोई प्रश्न अब सत्ता को बेचैन नहीं करता |जिस दुकान चलाने वाले लाला के पुत्र का जन्मसिद्ध अधिकार उसकी दुकानदारी में होता है इसी प्रकार सत्ताधारियों के पुत्र-पुत्रियों की सोच यह बन गयी है कि सत्ता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है |
यह सोच इसलिए सही नहीं है चूंकि यह सत्ता को प्रजातान्त्रिक दायित्व नहीं बल्कि जन्मसिद्ध अधिकार मानती है इसलिए इस सोच को हम स्वीकार नहीं कर सकते |
नैतिकता की दृष्टि से सत्ता चलाना देश सेवा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है |यद्यपि मेरी यह सोच व्यावहारिक धरातल पर कहीं टिकती नज़र नहीं आती चूंकि कोई भी व्यक्ति जो सत्ता में आता है उसके कुछ सपने होते हैं |इन सपनो के लिए वह किसी नैतिकता की परवाह नहीं करता लेकिन सारी विद्रूपताओं के बावजूद उसे हर बुराई को नैतिकता का आवरण ओढ़ाना ही पड़ता है |यह है नैतिकता की महत्ता कि असत्य के ध्वज को खूब ऊंचा उठाने के बावजूद उसे आवरण वही रखना पड़ता है-सत्यमेव जयते का |
सत्ता की यह मजबूरी भी है चूंकि आज़ादी के बाद जो लोग सत्ता में आये वे गाँधी जी के निकट संपर्क में रहे थे |वे ईश्वर और अल्लाह को एक ही सत्ता के दो नाम मानते थे इसलिए भारत की सरकार ने राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह के रूप में जिसे स्वीकार किया-वह था -अशोक स्तम्भ और उसके नीचे लिखा-सत्यमेव जयते |
इस दृष्टि से नैतिकता को दरगुजर करना संभव नहीं है और राजनेताओं को भी चाहिए कि सत्ता की कोई आचार संहिता अपने आचरण में लाएं और हजारों वर्ष पुरानी इस देश की मानवीय संस्कृति को बचाएं |शायर का यह शेअर अनायास ही ज़हन में आ रहा है-
वतन की फ़िक्र कर ऐ नादान,
मुसीबत आने वाली है, तेरी बर्बादियों के मश्वरे हैं,आसमानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदुस्तान वालों...
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में|
सत्ता की अनैतिक मनमानियों के विरुद्ध हम हिन्दुस्तानियों को ही जागना होगा |