सागर मिले कौन से जल में-कौन जाने?

एक समय था कि फ़िल्मी गाने भी सोच को झटका देने के काफी थे |प्रश्न ही बहुत अलग किस्म के उठाये जाते थे |इस सम्बन्ध में जब सोचता हूँ फील अनोखी रात का यह गाना ज़हन में उभरता है |बैलगाड़ी चलाते हुए संजीव कुमार गा रहे हैं -


ताल मिले नदी के जल में ,नदी मिले सागर में 
सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना ..


सीधा सा प्रश्न है ताल-तलैया का पानी नदी में चला जाता है |नदी समुद्र में जाकर मिलती है लेकिन समुद्र किस्में जाकर मिलेगा ?
बैलगाड़ी के पीछे मुकरी चले आ रहे हैं,बहुत छोटी सी लालसा है |जिस बैलगाड़ी को संजीव कुमार हाँक रहे हैं उस बैलगाड़ी में उनकी नयी -नवेली दुल्हन घूंघट निकाले बैठी हुई है और मुकरी उसका मुख देखना चाहते हैं |वे दौड़ भाग करते हैं लेकिन मुख नहीं देख पाते |लेकिन वे निराश नहीं हैं ,संजीव कुमार का अभिवादन करके बैलगाड़ी में उन्हीं के साथ बैठ जाते हैं |


बहुत ही सहज अभिनय |वे गाने में साथ देते-देते बार उचककर देखते हैं लेकिन दुल्हन और ज्यादा सावधान हो जाती है |मुकरी की भोली-भाली जिज्ञासा पर उसे हंसी आती है |इतना स्वाभाविक और रसपूर्ण दृश्य |दूसरी ओर गाने में उठाया गया सवाल बेहद गंभीर |



यह दृश्य एक प्रकार का विरोधाभास है |इस गाने को जब-जब मैं देखता हूँ तो मुझे पचास साल पुराने गांव की याद आ जाती है |बैलगाड़ी भी बेहद वास्तविक |गाड़ी के नीचे लालटेन बंधी हुई |साथ में बह रही नदी |दृश्य दिमाग में जाकर अंगद का पैर हो गया है -हटने का नाम ही नहीं लेता |


सागर मिले कौन से जल में ,बेहद गंभीर प्रश्न लेकिन यह दृश्य के रस को जरा भी कम नहीं करता |


गीतकार इंदीवर जी द्वारा लिखित इस गीत में बहुत ही गहरे प्रश्न उठाये गए हैं |प्रश्न गहरे हैं लेकिन खूबसूरती देखिये -


सूरज को धरती तरसे ,धरती को चन्द्रमा 
पानी में सीप जैसे प्यासी हर आत्मा  


कबीर याद आ जाते हैं-जल में मीन प्यासी ,मोहे सुन-सुन आवे हाँसी |कबीर कहते हैं मछली और पानी का अटूट नाता है| इस प्रकार मछली लगातार जल में रहती है लेकिन लगातार जल में रहने के बावजूद उसकी तृप्ति नहीं होती |इस बात को कबीर साहब अपने अंदाज़ में यूँ कहते हैं कि पानी में रहने के बावजूद वह प्यासी है,यह देखकर मुझे हँसी आती है |


इंदीवर मछली के स्थान पर सीप को रखते हैं और कहते हैं-पानी में सीप जैसे प्यासी हर आत्मा  और प्रश्न करते हैं-बूँद छिपी किस बादल में कोई जाने ना |


अध्यात्म के शुरूआती दौर में मैं यह गीत गाया करता था -


पांच मिले पांच ततो में छठा कहाँ जाए रे,
ज्ञानी कोई बूझे बुझारत ,जग जाने ना ..


यह सिलसिला जाने अनजाने उस धारा से जोड़ देता था ,जो कबीर से शुरू होकर इंदीवर तक जाती थी |कबीर से इंदीवर को जोड़ना यदि किसी को अखर रहा हो तो मैं नम्रतापूर्वक यह कहना चाहूंगा कि गीतकार के गीत अलग -अलग गीत अलग -अलग स्तर के हो सकते हैं लेकिन ताल मिले नदी के जल में जो दर्शन छिपा है और अलग -अलग प्रश्न उठा रहा है,वह ज़बरदस्त है |धर्म-दर्शन को इतनी आसानी से लोगों के मनो में उतार देना बेहद प्रशंसनीय है |


आत्मा की प्यास के बारे में कबीर कहते हैं -


कबीरा जब हम पैदा हुए,जग हँसा हम रोये  
ऐसी करनी कर चलो ,हम हँसे जग रोये |


नवजात शिशु जन्म लेते ही रोता है,यह दर्द उसके शरीर का नहीं आत्मा का है |वह आत्मा की प्यास है जो आज तक शिशुओं को रुला रही है | अगले बंद में गीतकार लिखता है -


अनजाने होटों पर यूँ पहचाने गीत हैं 
कल तक जो अनजाने थे,जन्मो के मीत हैं |
कौन मिले कौन से पल में कोई जाने ना ...


नायक के साथ दो लोग हैं -एक उसकी पत्नी और दूसरा एक देहाती ,जो बेचारा दुल्हन का मुख देखने की चाहत में नायक से चिपक कर बैठ गया |वह उसकी मदद कर रहा है,गाडी हाँकने में |यह देहाती बिलकुल अनजान है जो सिर्फ मुख देखने के लालच में गाड़ी में आ बैठा है और नायक से यूँ चिपककर बैठा है जैसे सदियों का मीत है | दूसरी ओर नायक की नयी-नवेली दुल्हन है |सात फेरे होने से पहले उसका नायक से कोई सम्बन्ध नहीं था लेकिन अब जन्मो के मीत हैं |कौन मिले कौन से पल में - कोई नहीं जानता |


गीत में उजागर ये दोनों पक्ष भ्रांतिमान अलंकार की सृष्टि करते हैं |और इस पर मुकेश का गहरा स्वर और रोशन का हृदयस्पर्शी -कर्णप्रिय संगीत ,गीत को ऐतिहासिक रूप दे देता है कि फिल्म बने हुए कई दशक बीतने के बावजूद अब तक मुरझाया नहीं बल्कि आत्मा-परमात्मा की तरह बिलकुल तरोताजा है और शाश्वत भी |