कहानी - उमर कैद


तीस साल हो गये हैं, उस दफतर में काम करते-करते। अब तो पैर खुद-ब-खुद उस तरफ बढ़ जाते हैं गली कौन सी है और सड़क कौन सी, देखना नहीं पड़ता।


गली में बाईं ओर हैण्ड पम्प लगा है। इस सरकारी हैण्ड पम्प पर प्रेमलता का कब्जा है। वही कभी वहां कपड़े धोती रहती है तो कभी बर्तन। अब तो उसका पानी पीने लायक नहीं रहा लेकिन जब पीने लायक था तब भी थी नहीं पाते थे क्यूंकि अपने काम में बाधा प्रेमलता को बर्दाश्त नहीं थी और वह मिनटों में प्रेमलता की बजाय क्रोध लता बन जाती थी |


प्रेमलता को मरे पांच बरस हो गये लेकिन अब भी मैं उस तरफ से बचकर निकलता हूं क्यूं कि पैरों को ऐसी ही आदत पड़ चुकी है।


एक बार क्या हुआ कि याद ही नहीं रहा कि आज छुट्टी है। रोज की आदत थी और सही वक्त पर दफतर पहुंच गया। वहां देखा तो गेट बन्द था। चपरासी इतवारी लाल, हंसकर बोला-"बाबू जी, आज भी दफतर आ गये, आज तो छुट्टी है।"


यह जानकर मुझे खुशी नहीं ? क्यूं कि घर में रहने का मतलब है-बीवी -बच्चों की नजरों में खटकना। जरा सा भी बोले नहीं कि जंग चालू ।


मैंने सोचा कि -लंच तो लेकर आया ही हूं क्यूंक म्यूनिसिपल लाइब्रेरी चालूं, टाइम अच्छा पास हो जायेगा। बीवी-बच्चे भी खुश रहेंगे कि बला टली नहीं तो बूढ़ा कुछ न कुछ बकता रहता है।


वहां से लाईबेरी आ गया- मगर आज वहां भी ताला बन्द था। लगता है, वहां भी छुट्टकी थी।


अब समस्या थी कि-चार-पांच घंटे का समय कहां बिताया जाए?


वापस चलने लगा तो ध्यान आया कि रास्ता यदि घूमकर जाया जाये, यानि कि दूसरे रोड से वापस जाया जाये तो रास्ते में पार्क आयेगा। पार्क में जरूर मेरे जैसा कोई न कोई घर से फालतू आदमी मिल जायेगा।


वो भी दिन थे जब मैं घर का फालतू आदमी नहीं था। पत्नी मेरे आदेश की प्रतीक्षा करती थी औ बच्चो भी बहुत प्यार करते थे। मैंने उन्हें बडा आदमी बनाने के लिए अच्छे-अच्छे स्कूलों में भर्ती करवाया। वे पढ़े भी और समझदार सिद्ध हुए। वे जैसे-जैसे समझदार सिद्ध होत रहे, मुझे मूर्ख सिद्ध करते रहे। धीरे-धीरे सब बच्चों ने मुझे मूर्ख मान लियाबच्चों ने जब मुर्ख माना तो उनकी मां ने भी मुर्ख मान लिया।


अपने को मूर्ख घोशित करने के विरुद्ध मैं जितने भी तक दिये वे बहुमता के सामने कमजोर सरकार की भांति उड़ गये।


सामने पार्क था लेकिन 10 बजे के आस-पास का वक्त हो चुका था। मौसम चूंकि गर्म थ इसलिए पार्क में लोग कम बचे थे। कुछ लोग ताश खेल रहे थे उनमें जोश था। लगता था अभी बुढ़ापा जीवन पर हावी नहीं हुआ है।


मैं भी बैंच पर बैठ गया और किताब पढ़ने लगा।


समय बारह बजे का था। पेड़ के नीचे बैठे होने के बावजूद जमकर गर्मी लग रही थी। काश, आज छुट्टी न होती तो दफतर ममे होता और ए.सी. का आनन्द ले रहा होता। पार्क में समय तो बीत रहा था लेकिन गर्मी से बचाव नहीं था।


आखिर घर की तरफ जाना पड़ा।


धर में घुसते ही ऐसा लगा जैसे बड़ा गुनाह हो गया हो। बीवी बोली- "आज बड़ी जल्दी घर आ गये?"


"जवाब देना जरूरी है? ' मैं थोडा कडे स्वर में बोला । क्यं कि जल्दी आने की कैफियत देने में मेरी कोई रूचि नहीं थी।


"किसी को मिलने का वक्त दे रखा है क्या?" वह चिढ़ाने के स्वर में बोली।


"एक ही गलती को बार-बार हो हराना मेरी आदत में शामिल नहीं है," कहकर ए.सी. वाले कमरे में घुस गया।


वहां टी.वी. पर जो फिल्म चल रही थी, वह मेरे उसूलों के हिसाब से देखने लायक नहीं थी। अगर मेरी जगह पिताजी रहे होते तो घर में भूचाल आया होता लेकिन मैं तो फौरन वापस लौट आया और बरामदे में आकर बैठ गयामैंने वही किताब निकाली और पढ़ने लगा।


पत्नी ने सबसे पहले अपने बेटे और उसके दोस्तों को खना दिया और उसके बाद बेटियों को। फिर उसने खुद भी खा लिया।


आखिर मुझे गुस्सा आ गया लेकिन क्रोध करने का कोई लाभ नहीं था। आखिर बहुत इन्तजार करके मुझे कहना पड़ा-"भई, मुझ भी खाना दे दो।'


"अरे, तुमने अभी खाना नहीं खाया?" उसने कहा।


"तुमने दिया है क्या?" मैं बोला।


नहीं दिया तो, कह दिया होता, तुम कोई मेहमान थोड़े ही हो,' वह बोली।


"वही तो कहा है---" मैं बोला।


“सुबह तुम्हें टिफिन दिया तो था," वह बोली।


"वो तो मैंने तुम्हे वापस दे दिया है," मैने कहा।


लगभग आधा घंटा लगा। मैं पढ़ तो किताब रहा था लेकिन भूख से अंतड़ियां ऐंठ रही थीं लग रहा था, बड़ी गलती हुई, दफतर में तो गर्मा-गर्मा खाना खा चुके होते।


"खाना खाने के बाद, बिजली का बिल जमा करवा आना,“मेज पर थाली रखते हुए पत्नी ने कहा।


ऐसा लगा जैसे कान मे किसी ने पिछला शीशा उड़ेल दिया हो । वास्तव में मैं सोने के मूड में था


पचास के बाद शरीर की उल्टी गिनती शुरु हो जाती है इसलिए खाने के बाद सुस्ती आ गयी और मैं जल्दी ही नींद के आगोश में चला गया।


नींद में मैं गाना सुन रहा था-"मुसाफिर जायेगा कहां?"


एस.डी. बर्मन की दर्द भरी आवाज में यह गीत मुझसे कुछ पूछ रहा था और मैं सोच रहा था कि वहां जाउंगा? अचानक मेरा पैर फिसला और मैं सीधा पानी में गिरा। समुद्र तो नहीं था। नदी भी नहीं थी। मुझे लगा कि कोई कुआं था । अंधेरा बहुत घना । मुझे याद था कि मैं दो बजे सोचा था। दो बजे तो दिन होना चाहिए थालेकिन वहां जैसे रात थी । मुझे लगा शायद मैं मर गया हूँ।


वहां मुझे बहुत शान्ति महसूस हो रही थीमैं बिल्कुल अकेला था, उस लोक में। यमदूत साथ न होने के कारण मुझे यह भी लग रहा था कि मैं अभी मरा नहीं हूं। मैं सोच रहा था कि किसी से पूछू कि –मैं जिन्दा हूं या मर गया हूं लेकिन पूछता किससे, वहां कोई था ही नहीं।


चाहे मरा होउं या नहीं लेकिन वहां शान्ति बहुत थी और वहां से वापस लौटने में मेरी बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी।


लेकिन जो हम चाहते हैं, वह कहां होता है। मनपसन्द सपना बहुत जल्दी टूटता है और हॉरर सपना लम्बा चलता है। हम दौड़ते रहते हैं लेकिन बला पीछा नहीं छोड़ती। उस समय हम चाहते हैंकि सपना टूट जाये, मगर वह टूटने का नाम नहीं लेतामनपसन्द सपने में हम अभी भविश्य के मंसूबे बांध ही रहे होते हैं कि सपना टूट जाता है और हम हैरान होकर कहते हैं-अरे, यह सपना था! 


फिर हम आंख बन्द करके दोबारा सपने से जुड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन सांस और सपना जब टूट पाता है तो फिर जुड़ता नहीं।


मुझे तो बस इतना याद है कि कोई भारी चीज मेरे माथे पर मिटी और मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा।


पता चला कि बीवी सबको चाय पिलारही थी, और उसके हाथ से टी कैटल छूट गयी और मेरे माथे पर आ गिरी।


मैं अभी कुछ कहने की हिम्मत जुटा ही रहा था कि उसने कहा- अब तो उठ जाओ, रात को क्या जागरण करोगे?


यह कहकर उसने चाय का कप मुझे थमा दिया और मुझे राहत मिल गयी। अब मैंने सोचा-"पार्क में चलता हूं दो घंटे तो वहां गुजर ही जायेंगे।"


। मैं अभी उठ ही रहा था कि घर वाली बोली-"जल्दी बाजार जाओ- और सब्जी ले आओ। घर में आलू बिल्कल नहीं है। ताजी सब्जी जो भी मिले, ले लेना।"


बीस तारीख पार हो चुकी है, जेब की हालत ऐसी है जैसे बिल्ली के पी लेने के बाद दूध की पतीली की होती ही यानि खाली।


"तुम्हें पता है मुझे बरसी या ताजी सब्जी का फर्क मालूम नहीं है। हालांकि मैं कोशिश करता हूं कि तुम्हारी मनपसन्द सब्जी लाउं लेकिन एक बार भी सफल नहीं हुआ इसलिए मुझे माफ करो।” मैंने पीछा छुड़ाने के स्वर में कहा।


"लेकिन बकरीद के त्योहार पर बकरे को कोई माफी देता है क्या इसलिए बीवी ने भी नहीं दी। 


“देखो, अगर सब्जी तुम्हारी पसन्दकी न हो तो झगड़ा मत करना और सौ रुपये दो क्यों कि हालत पतली है।'' मैं बोला।


सौ रुपये का सवाल आते ही उसने मुझे छोड़ दिया और मैं पार्क की बरफ निकला गया ताकि घर की स्थिति और मेरी स्थिति में कोई टकराव न हो।


अभी रास्ते में ही था कि भजन की आवाज कान में पड़ी-म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी|


आवाज इतनी मधुर थी कि सोचा, पार्क की बजाय भजन संध्या में चलते हैं। कभी-कभी धर्म-कर्म भी कर लेना चाहिए |


भजन संध्या में काफी भीड़ थीं आदमी भी थे लेकिन औरतें ज्यादा थीं। जो गा रही थी, वह तो बहुत ही खूबसूरत थी। साथ ही भगवान कृश्ण की मनोहर तस्वीर लगी हुई थी।


लोगों की भीड़ में मैं भी बैठ गया और भजन में रमने की कोशिश करने लगा लेकिन मन था कि भजन गायिका की ओर दौड़ जाता था जब कि मेरी उम्र ढल चुकी थी और इस उम्र में खूबसूरती का ख्याल करना अगर पाप नही तो सामाजिक अपराध तो जरूर ही है इसलिए मैंने भगवान कृश्ण परध्यान लगाया और वहां डटा रहा।


कई भजन हुए और बीच में गीता के प्रवचन भी। प्रवचन करने वाले विद्वान कोई पंडित जी थे इसलिए खूबसूरती से ध्यान हट गया और समय अच्छा बीता।


पांच घंटे कैसे गुजर गये पता भी न चला। आखिर मैंने उबले चने और हलवे का प्रसाद लिया और घर चले गये।


मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन करता क्या औलाद अपने बाप को अपने काबिल नहीं मानती क्यों कि अब तक वह क्लर्की ही करता आ रहा है। न चमचागीरी की और न अफसरी ।


"आज दफतर मे इतनी देर कैसे लग गयी?" बीवी ने जब यह पूछा तो मैं हैरान रह गया।


"तुम्हारी याद्दाशत इतनी कमजोर कैसे हो गयी?" शाम को ही तो मैं घर से गया था।


"अरे हां, सचमुच मैं भूल ही गयी।" वह बड़े आदमियों के स्टाइल में बोली। सचमुच बड़े आदमी जब किसी को भूलते हैं तो उसे स्टाइल माना जाता है और छोटा आदमी जरा सा भी यदि भल जाये तो उस अपराध माना जाता है। आज सब सोने के लिए भी चले गये।


थोड़ी देर में घरवाली भी आलसय के मूड में आ गयी और बोली- बहुत थक गयी हूं।" मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था इसलिए मैंने अपने बैग में से वही किताब निकाली और पढ़ने लगा।


पेट में चूहे उछल-कूद मचा रहे थे। मैं सोच रहा था कि अब भोजन मिलता है या कुछ देर बाद |


_पढ़ते-पढ़ते बहुत देर हो गयी लेकिन मुझे भोजन की गन्ध नहीं आयी तो इधर-उधर देखा।


घरवाली आराम से सो रही थी। तनख्वाह पर तो सब ऐसे झपटते हैंजैसे चूहों पर बिल्ली लेकिन मेरे लिए घर में भोजन भी नहीं था। गुस्सा तो बहुत आया लेकिन गुस्सा करने से अपनी ही तोहीन होती क्यों कि मेरे पास बहुमत नहीं था इसलिए ताकत भी नहीं थी।


मैंने देखा-उबले चने और हलवे का प्रसाद अभी तक वहीं रखा था। "आज बांके बिहारी के कीर्तन से ही गुजारा होगा, " मैंने सोचा और प्रसाद खा गया।


थोड़े से चने और हलवा, भूख में इतना स्वाद लग रहा था जैसे किसी खास होटल से आया खास भोजन। इस भोजन के बाद मैंने दवाई खाई और सो गया।


सुबह नाश्ता भी मिला और लंच बॉक्स भी । पाकर बहुत खुशी हुई और मैं बढ़ चला उन्हीं जानी-पहचानी सड़कों पर।


दफतर में घुसते ही ऐसा लगा जैसे जन्नत में घुसा होउं। सबसे बहुत खुशी के साथ मिला।


ऐसा लग रहा था जैसे मेरी सीट मुझे यूं मुस्कुराकर देख रही हो, जैसे जवानी के दिनों में बीवी देखा करती थी। इस पर बैठने का सुख भी निराला ही था |


तीन साल बाद जो रिटायर होने वाले थे, उनकी लिस्ट बनाई जा रही थी।


"तिवी जी, आपकी सर्विस बुक भी भेजी जा रही है।' दिनेश जी बोले |


"अच्छा है, आराम करने का भरपूर मौका मिलेगा।" मैडम सुमात्रा बोली।


मुझे कल का दिन याद आ गया। रात को बांकेबिहारी जी का प्रसाद न होता तो क्या खाता?मैंने सोचा |


घर है या उम्र कैद । ऐसी कैद जहां मरने की इन्तजार करने के सिवा कोई उम्मीद बाकी नहीं। रिहाई की एक ही सूरत है- मौत।


यह सोचकर मेरी आंखों में आंसू आ गये।