हर ताक़तवर इंसान चाहता है कि उसके पास समर्पित लोगों की टीम हो |समर्पित लोगों का पहला प्रकार तो उन लोगों का है जो महात्मा गाँधी के तीन बंदरों से प्रेरित है - अर्थात - अंधे, गूंगे और बहरे |
उन्होंने सोचा हुआ है कि आका के अलावा कुछ देखेंगे नहीं, आका जो कहने को कहेगा वही हम कहेंगे और आका के आदेश के अलावा कुछ सुनेंगे नहीं |
ये सिद्ध कर देते हैं कि अंधविश्वासी ऐसे होते हैं | इनकी नस-नस में चूंकि आका भरा होता है इसलिए ये हुकम के गुलाम होते हैं और आका के हुकुम से कुछ भी कर सकते हैं - आगजनी से लेकर हत्या तक |समर्पितों की यह सबसे खतरनाक श्रेणी है |इस प्रकार का समर्पित अर्थात अंधविश्वासी होना केवल तब सुरक्षित हो सकता है जबकि आका बहुत श्रेष्ठ व्यक्ति हो अन्यथा इनका सर्वनाश निश्चित है |
सही अर्थों से समर्पण वह है जो कि किसी श्रेष्ठ लक्ष्य के प्रति है |सच्चा शिष्य वही है जो विवेक की आँख खोलकर चलता है |वह जानता है कि सही क्या है और गलत क्या है | वह सही को चुन लेता है और गलत को मलिन वस्त्रों की भाँति त्याग देता है | वह किसी व्यक्ति के प्रति नहीं बल्कि उसके श्रेष्ठ सिद्धांतों के प्रति समर्पित होता है |
वास्तविकता है कि समर्पित होने से पहले चेतना का परिचय देना चाहिए |चेतन व्यक्ति सुनी-सुनाई बातों को नहीं बल्कि वास्तविकता को, सत्य को परखकर किसी व्यक्ति के प्रति समर्पित होता है |महात्मा दादू जी की अपने समय में बहुत कीर्ति थी |
यह कीर्ति किसी मीडिया टीम के कारण नहीं थी बल्कि उनके ज्ञान, विनम्रता और सहनशीलता के कारण थी |किसी सैनिक अधिकारी के मन में दादू जी के दर्शन करने की लालसा उत्पन्न हुई |वह दादू जी की कुटिया की ओर चल दिया |
गांव में जैसे ही वह घुसा, उसने देखा कि एक बुजुर्ग झाड़ू लगा रहा था |उसने बुजुर्ग से दादू का पता पूछा लेकिन उसने सैनिक अधिकारी की बात पर ध्यान न दिया और झाड़ू लगाते रहे |
सैनिक को अधिकारी होने का घमंड था इसलिए बुजुर्ग को कोड़े फटकार कर आगे बढ़ गया |
दादूजी की कुटिया पर पहुंचा तो वे उसे वहां नहीं मिले |शिष्यों ने बताया कि गुरु जी गांव में कहीं झाड़ू लगा रहे होंगे |
अब सैनिक अधिकारी का माथा ठनका |वह वापस लौटा और दादूजी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा |
दादू जी उस पर नाराज़ नहीं हुए बल्कि सहजता से बोले - लोग बर्तन भी यदि खरीदते हैं तो उसे ठोक- बजाकर देखते हैं | तू तो गुरु बनाने आया था, यदि तूने एक - दो कोड़े मार लिये तो क्या हुआ |
उनकी इस विनम्रता ने उसे दादू जी के प्रति समर्पित होने को बाध्य कर दिया |
वह सैनिक अधिकारी घाटे में नहीं रहा चूंकि उसका समर्पण सच्चे सन्त के प्रति था | सन्त किसी शरीर का नाम नहीं होता बल्कि उन जीवन मूल्यों का नाम है जिनके लिए सन्त अपना पूरा जीवन समर्पित कर देता है |
वह चूंकि स्वयं सत्य के प्रति सर्वस्व न्योछावर करने की भावना रखता है इसलिए समर्पण का सच्चा हक़दार होता है|