हम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं |स्वतंत्रता की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं जो स्वतंत्रता को दीर्घजीवी बनाती हैं |इन्हें मैं नागरिक कर्तव्य अथवा मानवीय मर्यादा मानता हूँ |
मर्यादा पर चिंतन करते हैं तो एक ऐसा आदमी ज़हन में आता है,जो सड़क पर छड़ी घुमाता हुआ जा रहा है |
एक आदमी जो उसके पीछे से आ रहा था ,उसने उसे रोकने की कोशिश की |उसने कहा-तुम मेरी आज़ादी को खत्म करने की कोशिश मत करो |
उस आदमी ने विनम्रता से कहा कि आपकी आज़ादी वहां ख़त्म हो जाती है,जहाँ से मेरी नाक शुरू होती है |
मेरी स्वतंत्रता किसी और की स्वतंत्रता को खत्म न करे,इसे कहते हैं -संयमित आज़ादी इसी का गरिमामय नाम है मर्यादा |
बाबा गुरबचन सिंह जी यह उदाहरण देकर हमें मर्यादा सिखाया करते थे - दो आदमी हमसे हमारे पिताजी के बारे में पूछते हैं -एक ने कहा -तेरी माँ का खसम कहाँ है ?
दूसरे ने कहा -आपके पिताजी कहाँ हैं |दोनों का मूल भाव एक ही है लेकिन हम दूसरे आदमी की भाषा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं चूंकि उसकी भाषा मर्यादित है |उसने शब्दों का विवेकपूर्वक उपयोग किया है |शब्दों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हैं तो शब्दों की मर्यादा स्थापित होती है |शब्द यदि मर्यादित न हों तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है |
इससे भी ज्यादा जरूरी है-भावनाओं की मर्यादा |अपनी पत्नी को भी हम गले लगाते हैं और अपनी बेटी को भी लेकिन दोनों के प्रति हमारी भावनाएं भिन्न होती हैं |इस भिन्नता को हम कहेंगे -रिश्तों की मर्यादा |किसी भी सभ्य नागरिक को रिश्तों की मर्यादा का पालन करना ही चाहिए |
इससे नीचे यदि हम उतारें तो अगला चरण आता है-मानवीय मर्यादा |
एक मनुष्य होने के नाते हमारी जो मर्यादा होनी चाहिए ,वह पूरे जीवन की आधारशिला है |राम जी को हम मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हैं चूंकि वे स्थापित मर्यादाओं की रक्षा करने तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि उन्होंने राजा की भी मर्यादा स्थापित की |इस स्थापना की प्रक्रिया में उन्हें स्वयं के प्रति घोर अन्याय करना पड़ा |अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति भी उन्हें निजी भावनाओं का दमन करना पड़ा लेकिन वे मर्यादाओं का आदर्श स्थापित करने में सफल रहे |
उनकी दूसरी माता कैकेयी ने उन्हें राजसिंहासन से दूर करके उन्हें चौदह वर्षों के लिए वन में भेज दिया |यह अत्यंत कठोर निर्णय था लेकिन राम जी ने रिश्तों की मर्यादा स्थापित की और इस अन्यायपूर्ण निर्णय को अपनी गरिमा पर हावी नहीं होने दिया |यहाँ तक कि जब वे वनवास से वापस लौटे तो सबसे पहले माता कैकेयी से ही मिले |यह होती है -मर्यादा की स्थापना |
उन्होंने वनवास को अनुभव सीखने का विद्यालय बना दिया |दलितों-दमितों और वंचितों को उन्होंने अपना साथी बनाया और बिना राज्य के भी राजा के रूप में स्थापित हुए |उन्होंने विभीषण को प;अहले ही लंकेश कह दिया और अपने आश्वासन की रक्षा की |इस प्रकार आश्वासन की मर्यादा स्थापित की |
वनवास के दौरान विपरीत परिस्थिति भी हुई जब सीता जी ने रावण की रणनीति न समझकर सामान्य स्त्रियों की भांति सोने के हिरन की प्राप्ति की ज़िद की |प्रिय पत्नी की भावनाओं का ख्याल करते हुए राम जी को हिरन के पीछे जाना पड़ा |
रावण की रणनीति के अनुसार मारीच ने राम जी के स्वर में कहा- -हा लक्ष्मण , हा लक्ष्मण |
सीता जी वहां भी सामान्य स्त्रियों की भांति घबरा गयीं और लक्ष्मण जी को जोर देकर उन्होंने राम जी की सहायता के लिए कुटिया से बाहर भेज दिया |
लक्ष्मण जी ने तब भी जागरूकता का परिचय दिया |उन्होंने कुटिया के बाहर एक रेखा खींची और सीता जी से किसी भी परिस्थिति में यह रेखा पार न करने की विनती की |
यह सामान्य रेखा नहीं थी बल्कि मर्यादा की सीमा रेखा थी ,जिसे हम लक्ष्मणरेखा कहते हैं |
रावण की रणनीति यहाँ भी सफल हुई |उसने सीता जी को लक्ष्मण रेखा से बाहर आने को प्रेरणा के लहज़े में उकसाया और सीता जी उसकी बातों में आ गयीं |उसने मुनि के वेश का भी ख्याल नहीं किया और धर्म को संदेह के दायरे में खड़ा कर दिया |
लक्ष्मण की विनतियों पर रावण की कूटनीति हावी हो गयी और सीता जी का अपहरण हो गया |अपहरण होने से पहले सीता जी को पता लग गया था कि उनसे गलती हो गयी है |उन्होंने रेखा के बाहर से फिर रेखा के भीतर पैर रखा लेकिन रावण ने हँसते हुए कहा-सीता,मर्यादा की सीमा रेखा यदि एक बार पार कर ली जाए तो फिर वह रक्षा नहीं कर सकती |
इतिहास साक्षी है कि सीताजी को कितनी मुश्किलें झेलनी पड़ीं इसलिए मर्यादा की रेखा को एक बार भी पार नहीं करना चाहिए|
कुछ गलतियां ठीक की जा सकती हैं लेकिन हर भूल को सुधारा नहीं जा सकता | हर गलती को आप सही नहीं कर सकते इसलिए हर हालत में मर्यादा को सम्मान दिया जाए |इसी से जीवन की गरिमा स्थापित होगी |