हम पत्नी के साथ ज्वेलर की दुकान में प्रवेश करते हैं |स्त्रियों का सोने से प्रेम ऐतिहासिक है |सीताजी को श्रीराम से बहुत प्रेम था लेकिन सोने का हिरन देखा तो मोह न छोड़ सकीं |राम जी ने बहुत समझाया लेकिन सीता जी ने सोने के हिरन की तुलना में उनकी बातों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय रूपये की तरह ज्यादा महत्व ना दिया |
हम भारतीय पतियों की हालत भी इस मामले में ज्यादा बढ़िया नहीं है |
बहरहाल हमने ज्वेलर की दुकान में प्रवेश किया क्यूंकि उन्होंने झुमके लेने हैं |झुमके का अपना इतिहास है |भले ही वह बरेली के बाजार में गुम हो जाए लेकिन एक बार तो जरूर लेना ही है |अब यदि आप झुमके ,हार ,टॉप्स और कुण्डल को पहचानते हैं तो इसमें कोई अयोग्यता नहीं है बल्कि उनकी नज़र में आपका महत्व थोड़ा बढ़ जाएगा |यहाँ द्वैत दृष्टि उपयोगी है |
जिसे अद्वैत से ज़रा भी परिचय है तो वह कह देगा -क्या कुण्डल ,क्या कंगन -सब कुछ सोना ही तो है |
मित्र चाहते हैं कि माया में खोकर क्या करना है,प्रभु में ही ध्यान लगाया जाये |आदि शंकराचार्य जी के शब्दों में -ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या |वे तो सन्यासी थे उनका गुजारा अद्वैत से भी अच्छी तरह हो गया लेकिन हमें तो झुमके और कंगन का पता रखना ही पड़ता है,गृहस्थी जीव जो ठहरे |
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी एक प्रसंग सुनाया करते थे -तीन मित्र स्नान करने गए |एक पत्थर था ,दूसरी रुई और तीसरी मिश्री |पहले पत्थर गया ,स्नान किया और बाहर आ गया |
पत्थर थोड़ी देर में ही सूखकर वैसे का वैसा हो गया |
अब रुई की बारी थी |वह भी सरोवर में गयी और वापस आ गयी |थोड़ी देर तक उसमें नमी मौजूद रही तत्पश्चात रुई भी पहले जैसी हो गयी |
अब मिश्री की बारी थी |मिश्री सरोवर में गयी तो लौटकर ही नहीं आयी |
एक और प्रसंग याद आ रहा है -एक मूर्तिकार तीन मूर्तियां बनाकर एक राजा के पास आया |उसने राजा के सामने एक चुनौती पेश की कि-तीनो मूर्तियों में से किसका मूल्य ज्यादा है ?
राजा आश्चर्य में पड़ गया चूंकि तीनो मूर्तियों का धातु एक था |वजन भी बराबर था और बनावट भी एक जैसी थी |
राजा ने अपने मंत्री की और देखा |मंत्री ने तीनो मूर्तियों को गहरी दृष्टि से देखा |मंत्री अनुभवी बुजुर्ग था ,उसने एक तिनका लिया और बारी-बारी से तीनो मूर्तियों के कान में डाला |
पहली मूर्ति का तिनका दुसरे कान से बाहर निकल गया |एक कान से सुने और दुसरे कान से निकाल दे यानी बात को अनसुना कर दे,उसकी कीमत सबसे कम है |
दूसरी मूर्ति के कान का तिनका मुँह से बाहर आ गया |जो सुना उसे बोल दिया ,ऐसे व्यक्ति को कान का कच्चा कहा जाता है |उसने बात तो पूरी सुनी इसलिए उसकी महत्ता भी ज्यादा होती है तो उसकी कीमत पहली मूर्ति से ज्यादा हुई |
अब तीसरी मूर्ति की बारी ,उसका तिनका बाहर आया ही नहीं अर्थात उसने जो ज्ञान का प्रवचन सुने भीतर ही रह गए |उसने ज्ञान को आत्मसात कर लिया |वह ज्ञानमय हो गया -वह और ज्ञान एक ही हो गया |यह अद्वैत है |
द्वैत से अद्वैत में जाना है चूंकि अंततः मूल में ही मिलना है |शरीर पांच तत्वों से बना-मिटटी,अग्नि,जल,वायु और आकाश |मृत्यु के समय ये पाँचों अग्नि के साथ अपने मूल में मिल जाते हैं |जिनमें दफनाने का रिवाज है,वहां वे मिटटी में मिलकर अपने मूल तत्व में मिल जाते हैं यह वैसे ही है-जैसे पानी का मूल स्रोत सागर है |सब नदी-नाले आदि अंत में सागर में ही मिल जाते हैं |
झुमके,टॉप्स,हार ,कंगन आदि सोने से ही बने और स्त्रियां जब उनसे उकता जाती हैं तो उन्हें ख़ारिज कर देती हैं |अब ज्वेलर की नज़र में भी वह सोना मात्र रह जाता है लेकिन उसका मूल्य अब भी रहता है ,इसी प्रकार अभी ,जीवित रहते हम किसी समूह के भी सदस्य हैं और हमारी हैसियत भी है लेकिन आत्मा का शरीर से सम्बन्ध समाप्त हो जाने के बाद हमारी पहचान एक शव मात्र रह जाती है |इस स्थिति में स्पष्ट हो जाता है कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं |
आत्मा का मूल है परमात्मा |आत्मा को जब परमात्मा का ही एहसास रहे ,शेष सब एहसास अप्रभावी हो जाएँ तो उस समय जो एहसास बचा रहता है,वही है अद्वैत | निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी महाराज कहा करते थे कि-परमात्मा भी नहीं बल्कि परमात्मा ही -यह अद्वैत के बाद की अवस्था है |