बेटियों को बोझ मानने की धारणा को खत्म करके युगप्रवर्तक सिद्ध हुए

आज 24 अप्रैल है - मानव एकता दिवस |


 


युगप्रवर्तक बाबा गुरबचन सिंह जी यदि आज शरीर में रहे होते तो नब्बे वर्ष के रहे होते| यह कोई बहुत ज्यादा उम्र नहीं है| इस उम्र के कुछ लोग तो आज भी हमारे आस - पास मिल सकते हैं| इस धरती पर जो भी इंसान आता है वह अपने पदचिन्ह जरूर छोड़ता है| 


पदचिन्ह का अर्थ है - प्रेरणाचिन्ह |


निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह जी को आज मैं, आज के सन्दर्भों के साथ  याद करना चाहता हूँ |


कल शाम को मैं अपने कुछ गुरुभाइयों और बहनों  के मध्य उन्हें याद कर रहा था - आज के सन्दर्भ में |


कुछ वर्षों से भारत सरकार ने यह नारा अपनाया हुआ है - बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ |गहराई से देखें तो पाएंगे कि बाबा गुरबचन सिंह जी  ने इस नारे पर अमल 1973 में ही शुरू कर दिया था, जब उन्होंने अभिभावकों के सिर से बेटी को बोझ मानने की परंपरा को खत्म किया |  



वे दूरदर्शी सत्गुरु थे, जो कि देश और विश्व की विराटता को अध्यात्म के साथ जोड़कर देखते थे| इसका प्रमाण है - उनका अहिंसा का गुण |


1978 के बाद निरंकारी मिशन का विरोध भी शरू हो गया था| यह विरोध विचारधारा का विरोध नहीं था बल्कि अहंकार और हिंसा के आधार पर निर्मित था लेकिन बाबा गुरबचन सिंह जी ने उन्हीं सत्य और अहिंसा के शस्त्रों का उपयोग किया जिनका उपयोग भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए किया गया था |बाबा जी के पदचिन्ह अहिंसा और सहनशीलता के थे जिनसे उन्होंने देश व समाज को नयी और रचनात्मक दिशा दी |


1963 में गुरुगद्दी पर आसीन होते ही उन्होंने हमें नारी सम्मान का सबक सिखाया |अपनी पत्नी को उन्होंने समान स्थान दिया और इसके मात्र दस वर्ष बाद 1973 में उन्होंने बेटियों को बोझ मानने वाली परंपरा को खत्म करने के लिए भागीरथ प्रयत्न किया|


1973की मसूरी कांफ्रेंस में उन्होंने स्पष्ट कहा कि बेटी का पिता अपनी बेटी को जो देना चाहता है ,उसे बिना प्रदर्शन किये अपनी बेटी को दे देना चाहिए |उनका कहना था कि एक व्यक्ति की हैसियत यदि पचास हज़ार रूपये  की है और उसके पांच बच्चे हैं तो एक बच्चे के हिस्से में दस हज़ार रूपये आते हैं |वो अपनी बेटी को उसके हिस्से के दस हज़ार रूपये यदि देना चाहता है तो उससे किसी को भी ऐतराज नहीं होना चाहिए |


यह पिता और पुत्री के बीच का मामला है इसलिए पिता अपनी पुत्री को जो चाहे दे लेकिन विवाह में दहेज़ की मांग बिलकुल नहीं होनी चाहिए |


उन्होंने जाति अथवा धर्म की बजाय बेटी और उसके वर के गुण और शिक्षा आदि को प्राथमिकता देने का आग्रह किया |  विवाह में खर्चा कम हो इसके लिए उन्होंने दिन के समय शादी करने का आदेश दिया और बारातियों की संख्या भी अत्यंत सीमित कर दी |  


इस फॉर्मूले से बेटी को बोझ मानने की धारणा में परिवर्तन आया और और अभिभावकों को राहत मिली लेकिन अब भी बेटियों को बोझ मानकर उनसे छुटकारा पाने की कोशिश की जाती है |अब सख्त कानूनों के चलते बेटी की भ्रूणहत्या के मामले में काफी कमी आयी है ,इसे मैं बाबा गुरबचन सिंह जी के प्रगतिशील दृष्टिकोण का ही परिणाम मानता हूँ |


उन्होंने समाज को समझाया कि-मुझे काली-पीली -नीली आदि झंडियों से कभी कोई दुःख नहीं हुआ लेकिन जब भी किसी का खून बहाया जाता है तो मैं बहुत दुखी होता हूँ |यदि किसी के हमसे विचार नहीं मिलते तो बैठकर विचार करे लेकिन किसी भी हालत में खून नहीं बहाया जाना चाहिए |सन्तों का  मार्ग हमेशा से अहिंसा का मार्ग रहा है |


उनके प्रगतिशील पदचिन्हों पर चलते रहने के संकल्प के साथ उन्हें शत-शत नमन |