जीवित प्रजातंत्र में चुनाव होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं |भारत में पहले आम चुनाव 1952 में हुए |उसके बाद यह सिलसिला लगातार चलता आ रहा है लेकिन 16वीं लोकसभा के चुनाव के बाद परिदृश्य बदला | राजनीतिक कट्टरता बढ़ गयी | हास्य व्यंग्य के प्रसिद्ध व लोकप्रिय कवि सम्पत सरल ने इस परिस्थिति पर सटीक टिप्पणी करते हुए जो कहा, उनके शब्द तो मुझे याद नहीं लेकिन भाव यही था कि - हर बार हम नेता चुनते थे, उनसे हम प्रश्न पूछ सकते थे, उन्हें बदल भी देते थे लेकिन इस बार हमने - शायद देवता चुन लिये हैं | उनसे हम प्रश्न नहीं पूछ सकते और विरोध करना भी आसान नहीं |
यह बात मुझे इसलिए ध्यान आयी क्यूंकि 16वीं लोकसभा के बाद जो सरकार बनी, उसकी पार्टी तो वही थी जिसके नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी हुआ करते थे लेकिन पार्टी - सरकार की नीति - रीति में गहरा अंतर था |
राजनीतिक विश्लेषकों ने कहा कि अटल - आडवाणी वाला युग बीत चुका है |
वे सही कह रहे थे चूंकि वाजपेयी या अडवाणी राजनीतिक विरोधियों को शत्रु मानने में यकीन नहीं रखते थे | अब जो नये युग के कर्णधार हैं वे भी यही कहेंगे कि शत्रु नहीं हैं लेकिन उनका व्यवहार उनकी (दुश्मनी न मानने की )बात को प्रमाणित नहीं करता |
जैसे 2014 में इस युग के दूसरे नंबर के कर्णधार ने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही | किसी भी दल को मिटाने की बात कहना प्रजातंत्र की आत्मा के खिलाफ है | चूंकि हमारे संविधान ने जो शासन पद्धति भारत के लिए नियत की है, वह बहुदलीय शासन पद्धति है और यह जिओ और जीने दो के सिद्धांत को मान्यता देती है |
इसमें व्यक्तियों का विरोध तो है लेकिन किसी को मिटाने का भाव स्वीकार्य नहीं है | इस प्रकार कोंग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा संविधान की मूल भावना के भी विपरीत है |
आश्चर्य की बात यह है कि नए युग के कर्णधारों को जितना प्रचंड समर्थन मिला है उतना अटल - अडवाणी की जोड़ी को कभी नहीं मिला | इसका अर्थ क्या यह निकालें कि अटल-अडवाणी की जोड़ी का महत्व इन दोनों से कम है ?
जी नहीं |
गुजरात की तत्कालीन सरकार जब दंगों में व्यस्त थी तब अटल जी ने राजधर्म निभाने की बात कही थी | वह राजधर्म क्या था-
अटल जी का कहना था कि शासक को प्रजा के साथ कोई भेद-भाव नहीं करना चाहिए |पक्षपात नहीं होना चाहिए |
अभी स्थिति इसके एकदम विपरीत है - जो शासकों की हाँ में हाँ न मिलाये, वह देशभक्त होते हुए भी देशभक्त नहीं है और जो सत्ता की हाँ में हाँ मिलाये उसके सौ खून माफ़ - वो प्रमाणित देशभक्त है |
यह राजधर्म का पालन तो प्रमाणित नहीं हो रहा |
आज दिल्ली में चुनाव हो रहा है| यह भी वैसा ही चुनाव है, जैसा चौधरी ब्रह्मप्रकाश (दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री) या मदन लाल खुराना (राज्य का दर्ज़ा मिलने और विधान सभा ,बनने के बाद दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री ) के समय हुए चुनावों के जैसा ही है लेकिन पिछले एक महीने से दिल्ली के वातावरण में येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जो खुले-आम गोली मारने के नारे लगाये जा रहे हैं, वह किसी भी धर्म से बहुत दूर है |
मुझे डॉ. अम्बेडकर का यह विचार ध्यान में आ रहा है कि कोई संविधान चाहे जितना भी बढ़िया क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं तो वह अच्छा सिद्ध नहीं हो सकता |
मेरा धर्मसंकट यह है कि जिन्हें विराट जनसमर्थन मिला है उन्हें अच्छा न होने के बावजूद भी बुरा कैसे माना जाए ?
आज के दौर में गलत को गलत कहने की समस्या