मैं इस धार्मिक मान्यता को स्वीकार करता हूँ-
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंच रचित अति अधम शरीरा।
कहने का भाव कि हमारा शरीर पांच तत्वों -मिट्टी ,अग्नि,जल,वायु ,आकाश ,इन पांच तत्वों से निर्मित है,इसीलिए लगभग सभी धर्मो ने सैद्धांतिक रूप से प्राकृतिक आधार पर स्त्री और पुरुष की समानता स्वीकार की है |
संतोष की बात है कि भारतीय संविधान भी यही मानता है इसलिए पिछले वर्ष (सित.2018 में ) जब सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का मामला आया तो सर्वोच्च न्यायालय ने प्रचलित परंपराओ को दरकिनार करके, मिथ्या धारणा को संरक्षण देने की बजाय नर-नारी की समानता को संरक्षण दिया |
यह एक प्रगतिशील दृष्टिकोण है, जिसे हर स्तर पर सम्मान मिलना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ |
सबरीमाला मंदिर में अब तक कोई स्त्री उस तरह प्रवेश नहीं कर पाई है जिस प्रकार प्रवेश करना किसी भक्त का अधिकार होता है|जिसमें पवित्रता होती है ,सम्मान होता है |इसका कारण यह है कि सर्वोच्च न्यायालय और संविधान से भी ऊपर प्रायः धार्मिक परम्पराओं और मान्यताओं को स्थान दिया जाता है,भले ही वे जितनी भी मिथ्या क्यों न हों |प्रगतिशील तथा मानवीयता के ऊपर कठमुल्लापन हावी हो जाता है | मिथ्या धारणाएं नर-नारी की समानता के सिद्धांत पर हावी हो जाती हैं |
यह सिर्फ हिन्दू समुदाय में सीमित हो,ऐसा नहीं है |पिछले दिनों पुणे की एक मुस्लिम महिला जिन्हें नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद में प्रवेश नहीं करने दिया गया , ने अपने इंटरव्यू में बताया कि हमें मस्जिदों में जाकर नमाज पढ़ने नहीं दी जाती जबकि इस्लामिक सिद्धांतों में इस पर रोक नहीं है |
यह पढ़कर मैं हैरान हुआ कि हिन्दू और मुसलमान औरतों के साथ असमानता के मामले में भी एक जैसे हैं | हिंदुत्व को तो इस मामले में असमानता नहीं अपनानी चाहिए थी चूंकि यह तो देवी रूप में भी परमात्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है|,इसके बावजूद सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के पूजा के मौलिक अधिकार को नहीं दे पा रहा है |सर्वोच्च न्यालालय के प्रगतिशील निर्णय के बावजूद सबरीमाला मंदिर में स्त्रियां प्रवेश नहीं कर पा रही हैं |
पुणे की इस महिला यास्मीन जुबेर अहमद पीरज़ादे ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है |इस प्रकार मुस्लिम स्त्रियों को भी यह मूल अधिकार हासिल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पडी है |मुझे पूरी आशा है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पूजा के उनके मौलिक अधिकार को उन्हें देगा |
उपर्युक्त परिस्थितियों के आलोक में हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो की महिलाएं पूजा का मौलिक अधिकार सहजता से प्रा नहीं कर पा रही हैं |इसका अर्थ है कि दोनों ही धर्मो में जिन लोगों का आधिपत्य है,वे न तो प्रगतिशील हैं और न धार्मिक |
शासन का काम है कि वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को वास्तविक रूप में लागु होना सुनिश्चित करे |सबरीमाला मंदिर में उन महिलओं को जाने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए,जो वहां जाना चाहती हैं ,साथ ही जो महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ना चाहती हैं,उन्हें भी यह अधिकार सरल-सहज तरीके से मिलना चाहिए |
शासन को चाहिए कि अपनी व्यक्तिगत अथवा दलगत विचारधारा को स्वतंत्रता और भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर हावी न होने दे |