विश्व भर में श्री गुरु नानकदेव जी का 550 वां प्रकाश उत्सव पूरे उत्साह से मनाया जा रहा है |श्री गुरु नानक देव जी ऐसे महामानव थे जिन्होंने मानव मात्र को समानता और विशालता का पाठ पढ़ाया |उन्होंने ऐसे सिद्धांतो को जीवन का आधार बनाया, जो इंसान को इंसानियत की दात बख्शता है | वे कहते थे-
इक ओमकार ,सतिनाम ,करता पुरख,निरभउ,निर्वैर,अकाल मूरत,अजूनि ,सैभं
परमेश्वर एक है |इसी का नाम सत्य है |यही सब कुछ का कर्ता,परमपुरुष है |निर्भय,निर्वैर है ,यह काल के अधीन नहीं है इसीलिए अकाल मूरत है |यह योनियों में नहीं आता |यह स्वयंभू अर्थात स्वयं उत्प्न्न है |
उनके जीवन में जो घटनाएं पढ़ने को मिलती हैं ,वे प्रमाणित करती हैं कि वे चमत्कारिक पुरुष थे लेकिन वे बंधी-बँधायी लकीर पर चलने की बजाय स्वतंत्र सोच रखते थे और व्यवहार में पवित्रता रखने पर विशेष बल देते थे |
उनके जीवन में ऐसे बहुत से काम थे जो किसी को भी नए और सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करते हैं |इन सारे कामो की शुरूआत होती है -खरा सौदा अथवा सच्चा सौदा से |
जिस प्रकार दवा की पूरी जानकारी और उसे खरीद लेने मात्र से हम स्वस्थ नहीं हो सकते इसी प्रकार महात्माओं की उत्तम शिक्षा को जान और समझकर ही हम उनकी शिक्षाओं का पूरा लाभ नहीं ले सकते जब तक कि उनकी प्रेरणा को अपने व्यवहार का अंग नहीं बना लेते |
ब्रह्मवेत्ता सतगुरु की कृपा और उससे भी बढ़कर उनकी व्यवहारिक प्रेरणा किसी पत्थर जैसे इंसान को भी हीरे जैसा कीमती बना सकती है|यह बात हम इतिहास से भली -भांति समझ सकते हैं |
श्री गुरु नानक देव जी बहुत दयालु थे |परेश्वर के अति निकट होने के कारण उनमें किसी को भी वरदान अथवा अभिशाप देने की क्षमता थी |इतिहास साक्षी है कि जिन लोगों ने उनका स्वागत- सत्कार नहीं किया ,उन्हें भी उन्होने अभिशाप नहीं दिया बल्कि कहा -यहीं बसे रहो |
दूसरी ओर जिन्होंने उनका स्वागत-सत्कार किया ,उन्हें भी उन्होंने कोई प्रत्यक्ष वरदान नहीं दिया बल्कि कहा- उजड़ जाओ |
मेरे जैसे सामान्य लोगों को यह बात आसानी से समझ नहीं आएगी कि उजड़ने का आशीर्वाद, अभिशाप क्यों नहीं है और यहीं बसे रहो का आशीर्वाद वरदान की गिनती में क्यों नहीं आता ?
महात्माओं की बातों का मर्म महात्मा ही जानते हैं और दया करके वही इस मर्म को लोगों पर खोलते हैं |गुरु जी ने अपने शिष्यों को इसका मर्म समझाते हुए कहा कि जो लोग अच्छे स्वभाव वाले नहीं हैं ,वे यदि एक ही स्थान पर बसे रहेंगे तो बुराइयां उसी स्थान तक सीमित रहेगी इसी प्रकार जो भले लोग हैं,अच्छे स्वभाव वाले हैं तो उन्हें एक ही जगह सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी( सद्गुणों की )खुशबू को दूर-दूर तक फैलाना चाहिए ताकि दुनिया का भला हो |
उनका कहना था-
नानक नाम चढ़दी कला
तेरे भाणे सरबत दा भला |
यह सबका भला सोचने का स्वभाव ही अध्यात्म का आधार है |बचपन के बाद जब वे कुछ सोचने और करने लायक हुए तब उनके पिताजी ने उन्हें कुछ रूपये दिए कि सच्चा सौदा करके आओ |वे अपने घर से निकले तो मार्ग में उन्हें कुछ सन्त मिले|वे भूखे थे तो गुरु जी ने उस धन को खर्च करके, उन सबको भोजन करवा दिया |
जब वे घर पहुंचे तो उनके पिताजी ने सच्चे सौदे अथवा खरे सौदे के बारे में पूछा |उन्होंने वह सब कुछ बता दिया ,जिस काम के लिए उन्होंने वह धन खर्च किया था |
आज भी कोई पिता अपने धन को इस प्रकार (जैसा करने को उसने नहीं कहा )खर्च करने पर शायद ही प्रसन्न हो ,तो गुरु साहब के पिताजी भी नहीं हुए |
मैं ही क्या आज तो पूरी दुनिया मानती है कि गुरु साहब का काम बुद्धिमानी से भरा था और जो उन पर नाराज हो रहे थे,इस विषय में नादान थे |
इसके बावजूद यदि हमारा बेटा अथवा हमारी गाढ़ी कमाई के पैसे से किसी को ऐसे ही भोजन करवा दे तो हमारी पहली प्रतिक्रिया यही होगी कि मूर्ख है तू |बेटा,तू नादान है,अभी तुझे दुनियादारी की समझ नहीं है |
यदि हमने गुरु साहब से कुछ सीखा है तो हमें किसी की,अपने विवेकानुसार सेवा करने पर अपने बच्चे को डांटना नहीं चाहिए|
कल (31/10/10/2019)की बात है, सुबह मैं पार्क से निकला तो पंजाब नैशनल बैंक (निरंकारी कॉलोनी ,दिल्ली )के सामने मुझे बुरी हालत में एक रिक्शेवाला दिखा | उसके पैर पर कई ज़ख्म थे और वह कह रहा था कि दो दिनों से उसने कुछ नहीं खाया |
यह बात सुनकर मुझे तुरंत गुरु नानक देव जी का, सच्चे सौदे वाला प्रसंग याद आ गया |रोजाना पार्क में जाते समय प्रायः मेरे पास धन बिलकुल ही नहीं होता चूंकि उस समय ध्यान शारीरिक व्यायाम की तरफ होता है |मैंने उससे कहा-तुम पांच निकट रुको ,मैं अभी आता हूँ |
उसने कहा-बाबू जी,जरा जल्दी आना |
मैं तेजी से घर आया ,सुबह उस समय रसोई में तो कुछ बन नहीं सकता था इसलिए बबुकोशा के कई फल मैंने प्लास्टिक के थैले में डाले ,पत्नी ने पूछा कि-अभी तो आये हो,तुरंत कहाँ चल पड़े तो मैंने पूरी बात बता दी |
उन्होंने कहा-कुछ सेब भी रख लो |बेटी ने बिस्कुट का एक पैकेट भी दे दिया |मुझे लगा मरहम-पट्टी के लिए भी उसे कुछ देना चाहिए और सौ रूपये भी साथ रख दिए |
मैं थोड़ा थका था तो पहले ख्याल आया कि बेटा ये चीजें ले जाए |मन में सोचा कि बेटा,बाइक से जाएगा और उसे यह सब मुझसे जल्दी दे आएगा लेकिन वह सो रहा था |
मुझे ख्याल आया कि सच्चे बादशाह ने यह सेवा मुझे दी है इसलिए मुझे ही इसे निभाना चाहिए |यह ख्याल आया तो मैंने उसे जगाने का ख्याल छोड़ दिया |
मैं तुरंत बैंक की तरफ लपका |मालिक की कृपा थी कि वह मुझे मिल गया |जैसे ही मैंने उसे तिल-फूल सेवा अर्पित की,मुझे एक अनूठी ख़ुशी का अनुभव हुआ |साथ ही यह संतोष भी हुआ कि बेशक मैंने गुरु नानक देव जी महाराज के दर्शन शरीर रूप में नहीं किये लेकिन उनकी शिक्षा को व्यवहार में लाने की ईमानदारी से कोशिश तो की है |
मैं यह जानता हूँ कि इस सेवा से उसकी समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है लेकिन जिस प्रभु ने मुझे उसकी सेवा के लिए भेजा यही प्रभु उसकी समस्या का समाधान करने के लिए किसी और को भी भेजेगा,यह सोचा और मैं शेष सवालों से बच गया | एक अनूठा संतोष मेरे ह्रदय में भरा था |