सभ्य समाज में ठगी की कोई गुंजाईश नहीं होनी चाहिए |


इसी सप्ताह की बात है,पुलिस और वकीलों के बीच  ,तीस हज़ारी न्यायालय में विवाद हुआ और बड़ी संख्या में वाहन जला दिये गए |यह इसी सप्ताह पहली बार हुआ हो,ऐसा नहीं है लेकिन वकील तो बुद्धिजीवी लोग होते हैं ,कानून की बारीकियों से भली-भांति परिचित होते हैं| वे जब ऐसी गतिविधियों में भाग लेने लगते हैं तो हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि कानून के पंडितों का यह काम उनकी गरिमा के अनुकूल है या प्रतिकूल?


वकीलों के सन्दर्भ में मुझे ध्यान आता है कि बुद्धिजीवी तो बुद्धि से लड़ते हैं,आग और हिंसा से नहीं |वकालत के सम्मानित पेशे से जुड़े लोगों का यह कार्य कानूनी पंडित होने की वास्तविकता के साथ एक प्रकार का विरोधाभास है |


जीवन अथवा संसार के सम्पूर्ण फलक के दृष्टिकोण से देखें तो यह विरोधाभास हर व्यक्ति और पेशे में किसी न किसी स्तर पर पसरा पड़ा है |


जो नैतिकता की बातें बहुत ज्यादा करता है,उस पर शक होता है कि उसकी दाढ़ी  में कहीं कोई तिनका तो नहीं है ?


विरोधाभास की यह स्थिति अचानक नहीं बनी |इसका लम्बा इतिहास है |महात्मा गाँधी ने कभी प.नेहरू को समझाया था कि-“मैं तुम्हें एक जंतर देता हूँ । जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओ :जो सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी तुमने उस दिन  देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा । क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा ? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा ?


मुझे उनकी बात यूँ महसूस होती है कि जैसे वे आज़ाद भारत के शासकों से कह रहे हों कि-रात को जब सोने जाओ तो अपनी आँखों के सामने उस आदमी का चेहरा लाना ,जो सबसे गरीब आदमी तुमने उस दिन देखा हो |फिर सोचना कि तुमने दिन भर जो काम किये,उनसे क्या उस आदमी को कुछ राहत मिलेगी ?


यह राजनीति अथवा सरकार का लक्ष्य होना चाहिए था कि सबसे गरीब आदमी की भी मूल ज़रूरतें पूरी हों ताकि वह समृद्ध और खुशहाल लोगों की कतार में खड़ा होने का सपना देख सके लेकिन राजनीति जब व्यवसाय हो जाए तो महात्मा गाँधी की नहीं कॉर्पोरेट्स की ही गुंजाइश बचती है |


राजनीति में जनकल्याण का स्थान जब व्यावसायिक लक्ष्यों ने ले लिया तो फिर नारे हावी हो गए और प्रजातंत्र मात्र एक साइनबोर्ड बनकर रह गया |इस प्रकार सबसे बड़ा विरोधाभास राजनीतिज्ञों अथवा नेताओं में आया और मानवीयता लुप्त होती चली गयी | यह देखकर शायर को कहना पड़ा-


इसका नहीं ग़म कि गिरी सिक्के की कीमत 
अफ़सोस है कि कीमत-ए-इंसान गिरी जाती है |


कुछ दिन पहले मुझे एक फटेहाल रिक्शाचालक मिला |जो आयु से तो जवान था लेकिन कमजोर और दुखी था,वह कह रहा था कि -दो दिन से खाना नहीं मिला |मुझे कई बार ऐसे लोग मिले हैं,जो दोपहर में मुझे खाना खाते देखकर बहुत उम्मीद से मुझे देख रहे थे और मैं अपने खाने में से उन्हें सिर्फ थोड़ा सा खाना ही दे पाया |


ऐसे वक़्त मुझे अक्सर याद आया है कि प्राणिमात्र की सेवा ही इश्वर की सच्ची सेवा है और यही सच्चा धर्म भी है |अपनी ओर से हमेशा मैंने यथासंभव इस धर्म को निभाने की कोशिश की तो मुझे याद आ गया कि विरोधाभास तो धर्म में भी है |


हम लोग दीन- दुखी के लिए पांच-दस  रूपये से ज्यादा देने की नहीं सोचते और धार्मिक संगठनों में हज़ारों रुपयों की बरसात कर देते हैं |भारत के मंदिरों में सबसे ज्यादा सोना है लेकिन गरीबों और भूखों के बारे में कोई नहीं सोचता |


मैं उस गरीब की बहुत थोड़ी सेवा कर सका ,उसकी बाकी सेवा की जिम्मेदारी परमेश्वर को सौंपकर मैं निश्चिन्त होकर अपने रास्ते चला गया लेकिन सरकारी विरोधाभास भले आदमी के साथ एक प्रकार की ठगी है और सभ्य समाज में ठगी की कोई गुंजाईश नहीं होनी चाहिए |