हास्य व्यंग्य - ठेठ आम आदमी



  दिल्ली में मेट्रो रेल अवतरित हो जाने के कारण मेरे जैसे कई आम लोग खुद को खास मानने लगे थे। वातानुकूलित यान यानि ए.सी. कोच में बैठने की बुरी आदत हो गयी थी। कहना हमारी घरवाली का कि हम अपनी औकात भूलने लगे थे इसलिए अच्छा हो गया कि मेट्रो रेल के प्रबंधन ने किराए बढ़ा दिये। किराए भी लगभग दोगुने कर दिये जिससे स्पष्ट हो गया कि मेट्रो रेल में सफर करना अब विलासिता की श्रेणी में आ गया है।


  आम आदमी को विलासिता के सामानों का परित्याग उसी प्रकार कर देना चाहिए जैसे धनवान लोग प्रायः ईमानदारी का परित्याग कर देते हैं। कहीं धनवान लोग मुझसे नाराज ना हो जाएँ इसलिए उदाहरण बदलना ठीक रहेगा। मेरा तात्पर्य यह है कि आम आदमी को विलासिता को उसी प्रकार त्याग देना चाहिए जिस प्रकार फिल्म अभिनेत्रियाँ कैरिअर बनाने के लिए वस्त्रों का परित्याग कर देती हैंकंजूस आदमी अपने धन की रक्षा के लिए दया का परित्याग कर देते हैं। आप समझदार हैं मेरा आशय समझ ही गये होंगे इसलिए लेख को आगे बढ़ाते हैं।


  बात यह है कि हमने इरादा बना लिया कि मेट्रो रेल की बजाय डी.टी. सी.बस का इस्तेमाल उसी प्रकार करेंगे जैसे गरीब आदमी दाल के महंगे होने पर दाल के पानी से काम चलाता है। डी.टी.सी. बसों के पीछे दौड़ने और डंडा हाथ में आते ही उससे चिपक लेने का हमारा पुराना अनुभव हैहमें तो रेड और ब्लू लाइन बसों के बहादुर कंडक्टरों की गालियाँ खाने का भी लंबा अनुभव है लेकिन हमारी __बदकिस्मती कि अब ब्लू लाइन और रेड लाइन बसें खुदा को प्यारी हो चुकी हैं। डी.टी.सी. और कलस्टर बसों की संख्या इतनी कम है कि यदि आबादी को ऊँट की उपमा दें तो बसों की संख्या की तुलना जीरे से करनी पड़ेगीतब किसी बच्चे को यह मुहावरा आराम से समझा सकते हैं कि -ऊँट के मुँह में जीराशहर में अब मेट्रो ट्रेन दौड़ रही है और मेट्रो रेल के कर्णधारों ने इसके किराए बढ़ा दिये हैं जिसके कारण लौट के बुद्धू घर को आए की तर्ज पर मुझे डी.टी.सी, की शरण में ही आना पड़ा।


  राजघाट तक पहुँचने में तो कोई विशेष असुविधा नहीं हुई इसलिए मैंने सोचा दुनिया नौ दिन ,पुराना सौ दिन। अपनी बुढ़िया डी.टी.सी. ही सबसे बढ़िया है। किराया भी कम और सीट भी मिल जाए तो दिल ऐसा खुश जैसे किसी बेरोजगार युवक को लड़कियों के हॉस्टल में नौकरी मिल जाए । नेत्रों का सुख तो मिलता ही है तंख्वाह का सुख अलग । कुछ ऐसी ही भावनाओं से ओत-प्रोत मैं राजघाट पहुँच गया। वहाँ दिल्ली सरकार के प्रतिभाशाली मंत्री अनशन करने से पहले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी से पर्मिशन लेने आए थेराष्ट्रपिता के पास पर्मिशन देने के अलावा कोई चारा नहीं था। मैं वहाँ बस स्टैंड पर खड़ा था। वहाँ नेता थे , उनके चमचे थे लेकिन बसें दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रही थीं।


  कोई समय था जब यहाँ से बसें ऐसे दौड़ती थीं जैसे रेस कोर्स में घोड़े दौड़ रहे हों लेकिन आज बस स्टैंड वीरान था। रह-रहकर किसी गुमनाम बादशाह के मकबरे पर होने का वहम हो जाता था। पुराने फिल्मी गीत की ऐसी पंक्तियाँ मेरे कानो में गूंजती थीं - आ लौट के आ जा ब्लू लाइन तुझे मेरे गीत बुलाते हैं। मगर जिसे बुलाते हैं वह कहाँ आता है और मौत को कोई नहीं बुलाता मगर वह नुक्कड़ -गली, गाँव-शहर में दिन-रात घूमा करती है। मैं अभी ऐसे भयानक ख्यालों में भटक ही रहा था कि लाल रंग की एक बस आती नजर आयीनिश्चय ही यह वह बस नहीं थी जिसे मैं बुलाना चाह रहा था लेकिन ऐसे ख्यालों के बीच रहना खतरे से खाली नहीं थामुझे यूँ लगा कि यमराज की सवारी भैंसा मेरे आस-पास ही है इसलिए साहिर साहब के मशहूर गाने के अनुसार मैंने 'जो मिल गया यानि' उस बस को ही अपना मुकद्दर मान लियाहालाँकि यह बस वातानुकूलित थी और किराया भी डबल था लेकिन मैं दौड़कर इस बस में ऐसे चढ़ा जैसे अगर चक गया तो बचँगा नहीं। किसी सही बस की उम्मीद से बीच रास्ते में ही उतर गया। बकोल चचा जुम्मन-आकाश से गिरे और खजूर में अटके।


  राजघाट की अपेक्षा यहाँ काफी मात्रा में जनता जनार्दन के अंश मौजद थे। पुलिस हैडक्वार्टर बिलकुल सामने था इसलिए यमराज के आने की कोई सम्भावना नहीं थी। पुलिस भी थी और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून भी था। सुप्रीम कोर्ट भी आस-पास ही था इसलिए मेरी हिम्मत खुल गयी और मैं व्हाट्सएप पर आये संदेशों को पढ़कर टाइम पास करने लगा। वे संदेश क्या थे, नैतिक शिक्षा की किताब थी। और असली लेखक का दूर-दूर तक भी कोई अता-पता नहीं थाउन संदेशों को पढकर य लग रहा था जैसे देश में रामराज आ गया हो।


  हर कोई दयालु हर कोई समझदार। मैं अभी मोदी सरकार का यह चमत्कार देखने में व्यस्त था कि सामने से वही बस आती दिखाई दी, जिसके आने की प्रार्थना मैं पिछले एक घंटे से कर रहा थादस दिनों से भूखा आदमी जैसे रोटी पर झपटेगा कुछ आदमी जैसे रोटी पर झपटेगा कुछ इस अंदाज में मैं बस पर चढ़ा। मैंने अपनी जेबें टटोलीं लेकिन पर्स कहीं और जा चुका था। माया की रफ्तार कितनी तेज हो सकती है मैं देख चुका थाशुकर है, दूसरी जेब में कुछ रेजगारी पड़ी थी कि टिकिट ले लिया अन्यथा बेइज्जती तो झेलनी पड़ती ही।


  यात्रा चल ही रही थी कि मंजन बेचने वाले एक महापुरुष बस में प्रकट हुए। अगर आप मेरी तरह के आम आदमी है तो निश्चित ही उनके प्रवचनों को झेलते रहे होंगे इसलिए मैं दोबारा आपको बोर करने का जोखिम नहीं लेना चाहूँगा। मेरा कहना मात्र इतना सा है कि वे निहायत दयालु आदमी थे जो सार्वजनिक रूप से यह घोषणा कर रहे थे कि -कंपनी का प्रचार है और आप लोगों का फायदावे बीस रुपए की दर से उस बेशकीमती मंजन की दस –बीस बेशकी' शीशियाँ बेचकर अंतध्यान हो गये।


  अब मेरे पास टाइम पास करने को कुछ नहीं था तो मैंने सोचा व्हाट्सएप के दस-बीस संदेशों का अध्ययन कर लेता हूँ ताकि विचारों की पवित्रता बनी रहेपहली-दूसरी -तीसरी -चौथी और शर्ट की भी सारी जेबें टटोल ली लेकिन किसी और की तथा किसी और के साथ नैन मटक्का कर रही बीवी की तरह वह मेरा साथ छोड़ चुका था। लगता है किस जेबकतरे ने अपना चहुमुखी विकास कर लिया था और । ठेठ आम आदमी की तरह हम तो जेबकतरे से भी पिट रहे थे और मेट्रो ट्रेन वालों से भी।