पुतले जलाने से क्या होता है ?


  पिछले दिनों असत्य पर सत्य की विजय की चर्चा चल रही थी। असत्य का प्रतीक-रावण, सत्य के प्रतीक - श्री राम। 


  श्री राम की लंका विजय इतिहास में अमर है लेकिन राम जी जिन गुणों  के प्रतीक हैं- प्रेम, उदारता, सहनशीलता, विशालता, समानता, नारी सम्मान आदि, उन गुणों  की स्थिति विजेता वाली तो आज बिल्कुल नहीं है। अखबार और टीवी - चैनल्स पर नजर डालें तो पाते हैं-


  - प्रेम में स्वार्थसिद्धी छिपी हुई है।


  - उदारता अपने खानदान से सम्बन्धित लोगों के लिए है।


  - सहनशीलता की हालत यह है कि एक कार पर यदि जरा सी खरोंच पड़ जाये तो कार मालिक हथियार
निकालकर दूसरे व्यक्ति पर वार कर देता है, बिना यह सोचे कि कार व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति
कार के लिए | इस आधार पर व्यक्ति को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए।


  - विशालता के सम्बन्ध में देखने पर पाते हैं कि हर कहीं बिरादरीवाद व प्रान्तवाद हावी है। सरकारी
कार्यालयों में ही नहीं अन्य स्थानों पर भी यह प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। एक प्रांत, बिरादरी, जाति व
कौम का व्यक्ति अपने लोगों की लिहाजदारी सबसे पहले करता है। उनके सौ गुनाह तुरंत माफ हो
जाते हैं। मिर्जा गालिब के अनुसार-


हम आह भी भरते है ं तो हो जाते हैं बदनाम,


वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।


  - समानता की स्थिति यह है कि अस्पृश्यता, जिसे कानूनी रूप से वर्षों पहले विदा किया जा चुका है,
गाँवों-देहातों में आम है। दलितों और सवर्णों के मध्य बहुत बड़ा फासला है। दलित, कहीं भी सवर्ण के
साथ मिल नहीं सकता क्योंकि ऐसा भ्रम प्रचलित है कि यदि ऊँची जाति के व्यक्ति का किसी दलित
से स्पर्श हो जाता है तो उसकी जाति या धर्म नष्ट हो जाएंगा।


एक ओर तो घर - घर में रामायण का सम्मान है लेकिन व्यक्ति इस बात को भूल जाता है कि राम जी ने निषादराज गूह को मित्र माना और मित्र का  ही सम्मान दिया। केवट के भक्ति भाव को भी प्रेमपूर्वक स्वीकार किया। भील जाति की भक्त शबरी को नवधा भक्ति का महान तत्व समझाया जबकि देश के अनेक भागों में आज भी ,पूजा के मामले में भी प्रबल
भेदभाव है। इसके कारण जाति भेद की खाई बढ़ती ही जा रही है क्यों कि लोगों के मनों में समानता का भाव नहीं है। शायर के शब्दों में-


  वो शहर तो आबाद था, लोगों से हमेशा,
  पर लोग ही ऐसे थे जो आबाद नहीं थे।


  - नारी सम्मान की हालत तो और भी बदतर है। नारी तो उपभोग की वस्तु समझी जा रही है। आदमी कहता है - तू चीज़ है बड़ी मस्त - मस्त और औरत कहती है - मैं चीज बड़ी हूँ मस्त - मस्त। टी.वी. - पर जो कार्यक्रम आते हैं उनमें से ज्यादातर तो शरीर को ही उभारते हैं। शारीरिक संुदरता को ही सबसे ज्यादा वरीयता दी जा रही है। आत्मा के बारे में इन्सान सोचने का कष्ट ही नहीं करता, शरीर के लिए ही जीवन जिया जा रहा है।


  - कुछ माह पहले मैंने एक सहकर्मी महिला से प्रश्न किया था कि नारी शरीर का नाम है या विचार का?  इस पर वे मौन रह गयी और वह मौन अभी तक बरकरार है। भारत में 1000 पुरुषों पर मात्र 927 के लगभग स्त्रियाँ हैं। साफ है कि हम कन्याओं को पैदा ही नहीं होने देते। एक ओर देवी माता के नौ रूपों की पूजा, अभियान की तरह होती है दूसरी ओर भ्रूण हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि आम हैं।


उपर्युक्त से स्पष्ट है कि आज समाज में प्रभाव राम जी के गुणों का नहीं है बल्कि उसका उल्टा है। प्रभाव असत्य का है, सत्य का नहीं।  बचपन में एक गीत सुना करते थे-


  रामचन्द्र कह गये सिया से, ऐसा कलयुग आएगा।
  हसं चुगेगा दाना - दुनका कौआ मोती खाएगा।


  गीतकार का कहने का भाव था कि साधन और सम्पन्नता कुपात्रों के पास होगी जो उसका दुरूपयोग करेंगे। यह देखा भी जा रहा है क्यों कि साधनसम्पन्न लोग भ्रष्टाचार के नये - नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। कुर्सी पर रहते हुए भले ही पता न चले लेकिन कुर्सी से हटते ही पर्दा हट जाता है। ईमानदारी का रंग उतर जाता है और भ्रष्टाचार की बदरंग त्वचा दिखने लगती है। गीत में आगे भी बहुत सारी सच्चाईयाँ बयान की गई हैं जिनमें माता-पिता के प्रति सन्तान की उपेक्षा, शासक और शासित में खींचातानी, धर्म के व्यापार में लगे लोगों का खोखलापन, रिश्तों की आपसी मर्यादा का हनन आदि सम्मिलित हैं। साठ के दशक में लिखा गया यह गीत जैसे आज के खोखलेपन को बहुत स्पष्टता से उजागर कर रहा है। पचास साल बाद भी यह गीत ऐसे लगता है जैसे इक्कीसवीं सदी में लिखा गया हो। स्पष्ट है कि पतन का सिलसिला थमा नहीं है बल्कि निरन्तर जारी है।


  हमारी परम्परा चली आ रही है- विजयदशमी मनाने की। सत्य की असत्य पर विजय का उत्सव मनाने की। यह बहुत सुन्दर परम्परा है। प्रतिवर्ष 10-12 दिनों तक लगभग समस्त भारतीय शहर उत्सव के उल्लास में डूब जाते हैं। गरीब से गरीब इन्सान भी जीवन के जोश से भर जाता है।


  दोष विजयदशमी पर्व का बिल्कुल नहीं है। परम्पराओं का भी नहीं है। दोष तो लोगों की इस धारणा का है कि राम जी और उनके गुण तो पूजा के लिए हैं। काम तो रावण के अवगुणों से ही चलेगा इसलिए उन्हें ही हमको अपनाना है।


  हमारी एक कहावत है कि बुरे काम का बुरा नतीजा। प्रकृति भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि ज़मीन में जैसा बीज बोया जाता है उसी के अनुसार फसल उत्पन्न होती है। इस आधार पर आवश्यक है कि किसी भी प्रकार से राम जी के गुणों को अपनाया जाये। इतिहास साक्षी है कि जिन लोगों ने नकारात्मक प्रवृत्तियों को अपनाया, उनका भयंकर विनाश हुआ। रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु से लेकर ओसामा बिन लादेन, हुस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन तक, जिनकी कभी दुनिया में तूती बोलती थी, सबका इतिहास हमारे सामने है।


  यह एक तथ्य है कि दुष्ट प्रवृतियों कीे तरफ मुनष्य का स्वाभाविक व ज्यादा झुकाव होता है, जब कि सकारात्मक व दैवी प्रवृत्तियों की तरफ चलने के लिए प्रयास करना पड़ता है।


  आइये पूरे मनोबल से सकारात्मक प्रवृत्तियों को अपने आचरण का अंग बनायें तभी असत्य पर सत्य की विजय हो पायेगी अन्यथा किसी के भी पुतले जलाने से किसी का अन्त नहीं हुआ करता।