युद्ध और शांति-एक सत्य अनुभव का विश्लेषण


अपने बचपन में मैंने 1971 का भारत -पाकिस्तान युद्ध देखा है ,जिसका परिणाम था - बांग्ला देश का उदय  |उन दिनों भारत के अधिकाँश शहरो में रात को अन्धेरा रखा जाता था |बल्ब इस भय  से नहीं जलाये जाते थे कि कहीं दुश्मन देश के विमान हम पर बम न फ़ेंक दें | इस स्थिति को  ब्लैकआउट कहा जाता था |युद्ध में हम जीत गए |इंदिरा गांधी भी जीत गयीं लेकिन महंगाई बढ़ गयी और जनता के दिन मुश्किल भरे हो गए | 
विश्व युद्ध पर आधारित कुछ फिल्मे मैंने देखी हैं |एक ब्रेड के लिए आदमी को ख़त्म कर देना देखा है |इसकी तुलना आज के दिनों से कीजिये ,कितने अच्छे दिन हैं |क्यूंकि युद्ध नहीं है ,शांति है |एक सिस्टम 
के भीतर जन-जीवन चल रहा है |
पिछले दिनों महाभारत काल पर आधारित एक उपन्यास श्रृंखला पढ़ने का अवसर मिला |उपन्यास बहुत प्रामाणिक था क्यूंकि मूल ग्रन्थ के सन्दर्भ भी सम्बंधित श्लोको के साथ वहां दिए गए थे |मुझे अक्सर ही यह लगता रहा है कि महाभारत के युद्ध के बाद जब कौरवो की मृत्यु हो गयी तो शांति स्थापित हो गयी होगी |लेकिन इस किताब को जब पढ़ा तो मेरा यह ख्याल बिलकुल धराशायी हो गया क्यूंकि उस अठारह दिनों के युद्ध ने जैसे खुशहाली को बिलकुल ख़त्म कर दिया था |युद्ध में जिन हथियारों का इस्तेमाल किया गया उनका यह असर हुआ कि नदियों का पानी ज़हरीला हो गया |वन नष्ट हो गए |खेतो में फैसले उगनी बंद हो गयी |हर घर में बच्चे ,बूढ़े या औरतें ही थी |युवा शक्ति ख़त्म हो गयी थी |
नए-नए किस्म के रोग पैदा हो गए थे |मानव शक्ति ही नहीं बची तो इलाज कौन खोजे |डॉक्टर भी युद्ध में काम आ गये थे |  
इस युद्ध के तीस साल बाद भी जन -जीवन पटरी पर नहीं आ सका था |राजा तो थे लेकिन शासन करने के लिए प्रजा नहीं थी |विकास का पहिया घूमना बहुत ही मुश्किल था क्यूंकि जो संताने पैदा हो रही थी वे विकसित नहीं थी |नारियां थी नर नहीं थे |उनकी संताने पशु की तरह की थी क्यूंकि पशु तो था लेकिन आदमी नहीं इसलिए संतानो में भी शारीरिक विकृति आ गयी थी |
  यह सब देखकर खुद शासकगण भी हताश हो जाते थे |जो दोषी थे वे मर चुके थे और जो पांच गाव लेकर भी शांति से रहने को तैयार थे वे सब समस्याओ से लड़ रहे थे बहुत ही दुखी भाव से |बाढ़ और सूखा लगातार चल रहा था |श्री कृष्ण तक कोई सार्थक दखल नहीं दे पा रहे थे क्यूंकि मनुष्य गलती कर चुका था और परिणामो पर किसी का कोई दखल नहीं था |  
दुर्योधन ने अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए पूरे विकास की बलि ले ली थी और जीने के लिए जो चाहिए होता है उसकी कमी आ गयी थी |
उस किताब को पढ़ते वक़्त मुझे लग रहा था कि काश दुर्योधन युद्ध की बजाय शांति का विकल्प चुनता |
युधिष्ठिर तो पांच गाव लेकर भी राजी थे लेकर दुर्योधन एक इंच भी ज़मीन देने को राजी नहीं था जब कि दुनिया से कोई कुछ ले ही नहीं जाता |जीत भी यही रह जाती है और हार भी |ज़र ,जोरू,ज़मीन-सब कुछ यहीं रह जाते हैं |शरीर तक साथ नहीं रहता फिर भी युद्ध का विकल्प चुनने वालो की कमी नहीं है |जॉर्ज बुश से लेकर सद्दाम हुसैन तक को लड़ते हुए हम देख चुके हैं |लश्कर-ए-तोइबा से लेकर ,तालिबान और बोको हरम तक के कारनामे सामने हैं ,जो यह सिद्ध करने को काफी हैं कि युद्ध आज भी कितना लोकप्रिय विकल्प है जब कि वह कभी भी समृद्धि बढ़ाने वाला नहीं होता |   
जिस इमारत को खड़ी करने में बरसो लग जाते हैं वह मिनटों में ख़त्म हो जाती है |शहर क्या देश तक मिनटों में ख़त्म हो जाते हैं फिर भी आदमी अपने अहंकार को बचाने के लिए युद्ध का विकल्प चुनता है |लगता है उसने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा |चवन्नी के अहंकार के लिए अरबो की कीमत चुका रहा है -एक अहंकारी | 
कोई नहीं चाहेगा कि हवा ज़हरीली हो जाए |ज़मीन बंजर हो जाए |इंसान का नामो निशाँ न बचे लेकिन इंसान की जो  दिशा है वह यही सिद्ध कर रही है कि उसकी सोच वैसी नहीं कि शांति सुरक्षित रह सके |यह तब है जबकि जिनकी हम उपासना करते हैं वे सब शांति की बात करते हैं |वेद में शांति के मन्त्र हैं |बुद्ध शांति की बात करते हैं और महावीर भी |
राम जी रावण से युद्ध नहीं करना चाहते और हनुमान जी और अंगद को भेजते हैं ताकि रावण युद्ध का विकल्प त्याग दे |कृष्ण जी तो स्वयं जाते हैं दुर्योधन को समझाने लेकिन वह उन्हें ही बंदी बनाने के मंसूबे बांधता है जब कि जिस प्रकार हवा-पानी -रोशनी को बंदी नहीं बनाया जा सकता उसी प्रकार सच्चे गुरु को भी कोई बंदी नहीं बना सकता |आज भी इंसान की सोच इससे भिन्न नहीं है |उत्तर कोरिया आज भी इस तथ्य का साक्षी है कि इंसान की सोच की दिशा आज भी भिन्न नहीं है | 
सत्य तो यह  है कि जो इंसान आज अशांत है वह भी पूरी तरह शांत था जब माता की गोद  में था |वह प्रभु की तस्वीर था  |उसमें मानवीय गुण  थे|करुणा-प्रेम-शांति जो सच्चे गुरुओ की वाणी है ,वे गुण उसके जीवन में थे |वह नादाँ कहलाता था लेकिन बहुत शांत व् सुरक्षित था -फिर वह बुद्धिजीवी हो गया बड़ी-बड़ी बातें करना सीख गया |अहंकार करना भी सीख गया और मानवीय गुणों की दृष्टि से कंगाल हो गया | जिस माता ने उसे जन्म दिया था वह उस मातृशक्ति पर ही ज़ुल्म ढाने लगा |उसके खाने के दांत कोई और थे और दिखाने के और |
चूंकि इंसान मूलतः शांत है इसलिए शांति के लिए प्रयत्न नहीं करने पड़ते बल्कि मन को गलत दिशा में बढ़ने से रोकना पड़ता है उसी तरह जैसे एक मूर्तिकार एक शिलाखंड का फालतू पत्थर हटाकर उसे आकर्षक मूर्ति का रूप दे देता है |इंसान को अपने मन को रोकना पड़ता है विपरीत दिशा में जाने से |यदि वह इस काम में सफल हो जाता है तो फिर चहु और शांति ही शांति है | तभी वह कह पाता है-  
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: । 
वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
एक  सच्चा गुरु इस लक्ष्य की प्राप्ति में इंसान की मदद करता है और इस उपलब्धि को आसान बनाता है |हमें शांति को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए-तभी हम सही अर्थों में इंसान सिद्ध हो पाएंगे- इस धरती के लिए वरदान   और हर प्रकार से मानवीय |