स्वामी चिन्मयानन्द जैसे तथाकथित सन्त इतने कुमार्गी क्यों हो गए हैं ?


धर्म एक सात्विक और सकारात्मक तत्व है जो कि जीवन में अच्छाई अथवा सच्चाई को महत्व देने के लिए है |अभी तक जो परिपाटी देखने को मिली है उसके अनुसार भारत में धर्म को बहुत महत्व मिला है लेकिन धर्म के नाम पर कर्मकांडों और कुरीतियों ने धर्म को यूँ ढँक दिया है जैसे वर्षा काल में चन्द्रमा को बादल |


निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी कहा करते थे कि धर्म वह प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य, मनुष्य बनता है |उनका एक यह भी विचार था कि धर्म का काम जोड़ना है, तोडना नहीं |   


इसके बावजूद आजकल तो एक और ही चलन यह देखने में आ रहा है कि धर्म के नाम पर लोगों को वर्गों में बाँटा जा रहा है,और उस बड़े वर्ग को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है |लोगों को राजनीतिक हथियार बनाने का चलन नया नहीं है लेकिन सत्ता स्वयं शासक दल के माध्यम से  लोगों को बांटेगी, यह चलन नया है |


आम नागरिक की कठिनाई पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि कुरीतियों और कर्मकांडों की उलझन में फंसकर पहले तो इंसान नास्तिक हुआ और फिर भौतिकवाद की और चल पड़ा | न जाने क्यों ऐसा होता है कि आम आदमी ज्ञान के अभाव में कुटिल लोगों के हाथों का खिलौना बन जाता है | राजनीतिक दलों का मोहरा बन जाने के कारण वह वरदान के स्थान पर अभिशाप बन जाता है, इस अवस्था में कहना पड़ता है - आज का इंसान भूला धर्म की पहचान है |


यह सिलसिला हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है |सोचने की बात यह है कि धर्म पर कर्मकांडों और कुरीतियों के बादल क्यों छा जाते हैं और आदमी अंततः पुरानी गलतियां ही क्यों दोहराने लगता है ?


धर्म के ऊपर छा जाने वाले बादलों अर्थात चल रहे कर्मकांडों की एक लम्बी फेहरिस्त है उनमें से दक्षिण भारत के मंदिरों में हज़ारों वर्षों से चली आ रही देवदासी प्रथा भी ऐसी ही एक प्रथा है जिसने महसूस करवा दिया कि धर्मस्थल अथवा मंदिर भी भोग-विलास के माध्यम हो सकते हैं |


मंदिर एक सकारात्मक माध्यम है जो आत्मा को प्रभु की ओर उन्मुख कर सकता है, दूसरी तरफ भोग -लिप्सा इसके बिलकुल विपरीत है, जिसमें शरीर ही महत्वपूर्ण है आ त्मा तो जैसे होकर भी नहीं है, अथवा कहीं दूर जा छिपी है | जहाँ शरीर और शरीर को केंद्र बनाकर चलने वाला यौन व्यापार ही सर्वत्र दृष्टिगोचर है उसका धर्म में दखल कैसे हो गया, यही प्रश्न है क्यूंकि जितना - जितना इसकी गहराई में उतरेंगे उतना - उतना हम उस समस्या के समाधान की और पहुंचेंगे जो कि आजकल हर संचार माध्यम में चर्चा का विषय है कि आज के  तथाकथित सन्त इतने कुमार्गी क्यों हो गए हैं ?


सन्त कबीरदास जी कहते हैं-


दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोय


जो सुख में सुमिरन करें तो दुःख काहे को  होय |


कबीर साहब ने बहुत यथार्थ लिखा है, शायद इसीलिए पुराने समय में सन्त तपस्या का मार्ग अपनाते थे | जब तक सन्त कठिन परिश्रम करता है उसका ध्यान प्रभु में भी लगता है और शरीर भी संतुलित रहता है लेकिन जैसे - जैसे बिना परिश्रम किये मुफ्त का माल मिलना शुरू हो जाता है, पेट की भूख मिट जाती है तो वर्षों से दबी हुई वासनाएं - कामनाएं सिर उठाना शुरू कर देती हैं | चूंकि साधन उसके पास उपलब्ध होते हैं और लफ़्फ़ाज़ी भी वह सीख चुका होता है इसलिए वह ऐसे उपाय करता है, जिनसे वह अपनी सफेदपोश की छवि भी बनाये रखे और अपने विकारों की पूर्ति निर्विघ्न करता रहे | अपनी कुंठाओं और कामनाओं - वासनाओं की पूर्ति को ही वह अपना सर्वोच्च लक्ष्य समझने लगता है |


ओशो, जो महान दार्शनिक भी थे, ने खुलकर यह काम किया और बाकी  ज्यादातर लोगों ने छिपकर | उन्होंने धर्म व् नैतिकता की मनमर्ज़ी की परिभाषाएं बनायीं और धर्म की आड़ लेकर यह सब किया इसलिए जो काम दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के मंदिरों में देवदासियों के माध्यम से होता था, उत्तर भारत के आश्रमों में साध्वियों और शिष्याओं के माध्यम से होने लगा |समस्या की गहराई में उतरेंगे तो पाएंगे की मूल प्रवृति वही है |


आजकल तो राजनीतिक सन्त - स्वामी चिन्मयानन्द की बहुत चर्चा है |मैंने उनके लिए शब्द राजनीतिक सन्त लिखा है लेकिन अपनी बेटी अथवा पोती की उम्र की छात्रा को अपनी यौन कुंठा का शिकार बनाना सन्त के विपरीत कर्म है फिर भी मैंने राजनीतिक सन्त लिखा है तो मात्र इसलिए कि नाम सन्त वाला है और शासक दल के हैं, केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं इसलिए राजनीतिक तो वे शतप्रतिशत हैं लेकिन सन्त एक प्रतिशत भी नहीं हैं क्यूंकि-


सन्तन के मन रहत है, सबके हित की बात,


घट-घट देखें अलख को, पूछे जात न पात |


इस कसौटी पर यदि कसें तो उन्हें सन्त कहना (भले ही उसके साथ राजनीतिक शब्द भी जोड़ दिया हो) मुझे सन्त शब्द का अपमान नज़र आता है | 


मुझे तो अपने इस शब्द लिखने पर शर्म आ रही है लेकिन शासक दल को बिलकुल नहीं आती और बहुत बेशर्मी से सरकारी मशीनरी उसे बचाती रही |जब खूब बदनामी हो गयी और पीड़िता ने भी आत्महत्या की चेतावनी दी तब सरकार ने हरकत शुरू की |


मुझे चिंता तो हिंदुत्व की है ,जिसे बचाने का ठेका शासक दल के पास सुरक्षित है |कोई ओर उस पर ठेकेदारी होने का दावा नहीं कर सकता |


शासक दल के ऐसे स्वामियों के चलते ,धर्म कितना सुरक्षित है,इस पर विचार करने की ज़रुरत है |चूंकि धार्मिक अथवा सन्त कहलाना कोई अलंकरण नहीं है बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी है |कोई समय था जब दामन पर ज़रा सा दाग लगने पर भी आदमी मुँह छिपाता फिरता था और कोई-कोई तो आत्महत्या तक कर लेता था |


मुझे एक समाचार याद आ रहा है जिसमें एक लड़की के साथ बलात्कार होने के समाचार में ,मेरठ में रह रहे उसके मामा का नाम किसी टी वी चैनल ने जोड़ दिया था और उस इंसान ने आत्मग्लानि के कारण आत्महत्या कर ली थी |


एक समय था जब समाज के नैतिक मापदंड बहुत ऊंचे थे |धार्मिक लोग बहुत सावधानी से जीवन जीते थे ताकि दामन पर कोई दाग न आये |ये धर्म के नैतिक रूप से ऊंचे होने की पहचान थी | 


थोड़ी देर पहले किसी सज्जन ने मुझे एक विद्यार्थी का वीडियो भेजा ,जिसमें वो कह रहा था कि महात्मा गाँधी के बारे में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उन्हें उन्हीं के देश के लोगों ने सबसे कम पढ़ा है |इसी अज्ञान के कारण हम लोगों ने उन्हें विभाजन का जिम्मेदार माना और उन्हें गोली मार दी |


सोचने की बात यह है कि गाँधी जी अहिंसा के पुजारी थे जो कि सच्चा धर्म है |अहिंसा परमो धर्मः का विचार कोई आज का नहीं है |


अंतिम समय में  गाँधी जी ने कहा-हे राम


इस राम शब्द को सुनकर किसी के मन में दहशत नहीं होती यह सबसे बड़ा हिंदुत्व है |


शासक दल इस परिपेक्ष्य में कितना खरा उतरता है,इस बात पर हिंदुत्व के पैरोकारों को खुले मन से विचार करना चाहिए |


वास्तविकता यह है जैसे गाँधी एक विचार थे,जिनकी गोली लगने के बावजूद हत्या नहीं हो सकी इसी प्रकार हिंदुत्व भी एक विचार है,जो गाँधी जी और स्वामी विवेकानंद से मजबूती पाता है |इस दृष्टि से स्वामी चिन्मयानन्द ,हिंदुत्व के उन्नायकों में कहीं नहीं हैं |


देवदासी प्रथा हज़ारों साल पुरानी है|मैं सोच रहा था कि हज़ारों सालों से क्या किसी का भी ध्यान इस परंपरा को ख़त्म करने की तरफ नहीं गया ?अंग्रेजों तक ने इस प्रथा को खत्म करने के लिए कानून बनाये लेकिन यह छद्म हिंदुत्व ही था जिसने कानून की भी परवाह नहीं की |स्वतंत्रता के बाद भी अनेक कानून बने लेकिन यह शर्मनाक प्रथा कायम रही क्यूंकि स्वामी चिन्मयानन्द जैसे स्त्रीलोलुप लोग इसके समर्थन में थे और हैं |


ऐसे लोगों को जब सत्ता का परोक्ष या अपरोक्ष समर्थन मिल जाता है तो धर्म का वर्तमान अंधकारमय हो जाता है |भविष्य की आधारशिला तो वर्तमान होता है ,इस तथ्य पर शासक दल को निश्चय ही विचार करना चाहिए कि उन्नाव की बलात्कार पीड़िता की हत्या को उतारू उसके विधायक कुलदीप सेंगर और अब स्वामी चिन्मयानन्द के साथ क्या उसका व्यवहार क्या सम्बंधित पीड़िताओं को न्याय की आशा बंधाता है ?


इस प्रश्न का निष्पक्ष उत्तर ही शासक दल को दोषी अथवा बरी सिद्ध करेगा |