"इक हूक-सी दिल में उठती है, इक दर्द जिगर में होता है।
हम रात को उठ कर रोते है, जब पूरा आलम सोता है।।"
- भगतसिंह
सन् 1934 में मैं उर्दू के गढ़ दिल्ली में प्रथम या द्वितीय दैनिक 'अर्जुन' का सह–सम्पादक था। प्रधान संपादक और पत्र के स्वामी पं. इन्द्र विद्यावचस्पति सफल और प्रमुख पत्रकार थे। सांध्य पत्र होने के कारण रात के जागरण की आवश्यकता ही नहीं थी। रविवार का अवकाश रहता था। सह-सम्पादक का मासिक वेतन, सामान्यतः 64 रु. से 80 रु. तक और उप–सम्पादक का 50 रु.से 65 रु. तक होता था। सम्पादक के अतिरिक्त दो या तीन, कभी-कभी तो एक ही सह–सम्पादक व उप–सम्पादक होते थे। कार्यालय का समय प्रायः प्रातः 9 से सायं 6 बजे तक होता था। मध्यान्तर का अवकाश आवश्यक न होकर भी सुविधानुसार आगे-पीछे हो जाता था। वेतन कभी समय पर नहीं मिलता था। लेकिन जनता में सम्पादक और पत्रकार को कट्टर देशभक्त' के रूप में अत्यन्त आदर से देखा जाता था। पत्रकार को भी जेल-यात्रा के लिए सदा सन्नद्ध रहना पड़ता।
मार्च का महीना। 'अर्जुन' का कार्यालय नया बाजार (अब नाम स्वामी श्रद्धानन्द बाजार) में था। उन दिनों आज का दिल्ली का बहादुरशाह जफर मार्ग और कनॉट प्लेस यही नया बाजार था। ये दोनों और इनके चारों और फैले आज के गगनचुम्बी भवन और मकड़ी के जाले की तरह चारों ओर सतत वृद्धिशील सरकारी व गैर सरकारी दफ्तर अभी गर्भावस्था में ही थे। इनका "जात कर्म संस्कार" होने की योजनाएं अभी ड्राइंग व कागजों पर ही थी। इस सारे इलाके का नाम 'रायसीना' था। अजमेरी गेट से यहाँ जाने के लिए इक्के वाले शाम को दो व ढाई-तीन आने प्रति 'सवारी लेकर भी जाने में संकोच करते थे।
'अर्जुन' दैनिक में एक नया चेहरा
एक दिन मैं प्रातः कार्यालय पहुँचा। वहाँ सम्पादकीय मेज के पास चेहरे पर हल्के रोयें और पगड़ी के नीचे - छिपे छोटे-छोटे केस युक्त गम्भीर मुद्रा में एक गबरु सिख को कुर्सी पर बैठे देख चौका। इन्द्र जी मेरी असमंजस की स्थिति भाँप गये। स्वयं ही बोले “दीनानाथ जी। इन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी' जी ने कानपुर से पत्रकारिता सीखने के लिए भेजा है। आप इनसे काम लें। इनका नाम बलवन्त सिंह है।" उन दिनों मेरे सहयोगी और सहाध्यायी विद्यानिधि जी सिद्धान्तालंकार थे। वे संम्भवतः अवकाश पर थे। अतः एक सहयोगी मिलने से कुछ सन्तोष हुआ।
भगतसिंह से सान्निध्य
बलवन्त विनम्र, मितभाषी और खाली समय में अध्ययन में व्यस्त रहता। उसके हाथ में, प्रायः इतिहास और राजनीति की ही अंग्रेजी पुस्तकें होती। बातचीत का सूत्रपात अधिकतर मेरे द्वारा ही होता। 10-15 दिन के बाद यह सम्पर्क तनिक घनिष्ठ हो गया। आयु में बड़ा होने से वह मेरे प्रति उचित सम्मान और शिष्टाचार प्रकट करने में कभी संकोच न करता। एक दिन वह कुछ हल्के मिजाज में था। मैंने पूछ ही लिया, "बलवन्त! तुम्हारे रहने ठहरने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था है?" उसने कुछ लापरवाही और टालने के स्वर में कहा- “ऐसे ही रात को किसी धर्मशाला व कभी किसी परिचित के पास ठहर जाता हैं। भोजनादि बाजार में...।"
मैंने उसके प्रति अत्यन्त स्नेह प्रकट करते हुए कहा, "चाँदनी चौक में कटरा नील के सामने एक मुसलमान की बिसात-खाने की बड़ी दुकान है। उसके ऊपर पहली छत पर दो कमरे और टट्टी-गुसलखाना और सामने खुला सहन व एक चौबारा भी है, जो मेरे चचेरे भाई ने अपने कारोबार के लिए किराये पर ले रखा है। वह रायसीना में अपने माता-पिता के पास रहता है। अपने धंधे के बारे में वह कभी-कभी आता है। एक चाबी मेरे पास भी है। मैं वहीं रहता हूँ और फव्वारे के पास एक ढाबे पर भोजन करता हूँ। तुम वहां आ जाओ। आराम से रहना तुम्हें कोई किराया नहीं देना होगा। चाहोगे तो भोजन भी मेरे साथ करने ढाबे पर चलना।" कुछ आनाकानी के साथ मेरे आग्रह पर वह रजामंद हो गया।
दोनों भोजन भटः ढाबे वाला परेशान
फव्वारे पर स्थित जिस ढाबे पर हम दोनों भोजन करने जाते वह सरदार तंदूर पर छोटी-छोटी और नरम रोटियाँ बनाता। यद्यपि मैं आयु में बलवन्त से कुछ बड़ा था पर थे तो दोनों ही नौजवान और स्वस्थ। भूख खूब लगी होती। दोनों मिलकर प्रायः खुश्क दो दर्जन फुलके खा जाते। ढाबे वाला कभी-कभी खीज जाता, हम दोनों के इतनी रोटियाँ डकारने पर जहाँ तक मुझे याद है उन दिनों दो पैसे प्रति फुलका होता था। सरदार को सन्तुष्ट करने के लिए 4-6 पैसे अधिक दे देते।
दिल्ली में हिन्दू-मुस्लिम दंगे
उन दिनों हिन्दू-मुस्लिम दंगे अक्सर होते रहते। दिल्ली में नया बाजार से चाँदनी चौक जाने का रास्ता खारी बावली से फतेहपुरी मस्जिद के सामने से ही था। दंगे के गढ़ भी चांदनी चौक सहित ये दोनों बाजार थे। इससे बचने के लिए हम दोनों बड़े रेलवे स्टेशन के सामने से कम्पनीबाग (आजकल गांधी मैदान) होकर जाते। बलवन्त दंगों से बहुत क्षुब्ध होता। वह प्रायः कहता कि "विदेशी सरकार इन दंगों को भड़का कर अपने पैर इस देश में जमाने की शरारत करती है।" रात को उठकर वह प्रायः अश्रुपूरित नेत्रों और ठंडे श्वास के साथ यह शेर गुनगुनाता -
इक हूक सी दिल में उठती है, इक दर्द जिगर में होता है।
हम रात को उठकर रोते हैं, जब पूरा आलम सोता है।।
उसके पैरों की आहट से कभी-कभी मेरी नींद भी खुल जाती, मैं उसे बहुत बेचैन देखता। बलवन्त के हृदय में विदेशी सरकार के प्रति तीव्र घृणा थी और वह उसे किसी प्रकार भी भारत से निकाल देने की कसमें खाता रहता था। वह मेरे सामने भी कभी-कभी उमंग आने पर यह बात प्रगट करता। बहस के लहजे में वह स्पष्ट शब्दों में अहिंसा के रास्ते और सत्याग्रह आंदोलन के प्रति भी प्रबल विरोध प्रकट करता।
विप्लव दल में सक्रियता
बलवन्त की एक और आदत थी। रविवार को चूंकि दैनिक पत्र की छुट्टी रहती, इसलिए वह शनिवार रात की गाड़ी से दिल्ली से बाहर चला जाता है, यह सबके लिए रहस्य था। इन्द्र जी उसकी इस अनुपस्थिति पर कई बार असन्तोष प्रकट करते तो वह नम्रता से इतना ही कहता, ''अब भविष्य में सावधान रहगा|'' एक बार तो इन्द्रजी को अन्तिम चेतावनी देनी पड़ी, जिस पर वह काफी समय का पाबंद हो गया।
चूंकि मेरा और उसका दिन-रात का साथ था, इसलिए मैं उसका विश्वासपात्र बन गया | उसने मुझे इस शर्त पर कि “पंडित जी को मैं नहीं बताऊँगा।" कार्यालय से अपने डेरे पर आकर बताया कि- "वह देहरादून जाता है जहाँ रासबिहारी बोस व कुछ अन्य क्रांतिकारी रहते है। उनसे मिलने और विदेशी सरकार को शस्त्र बल से देश से बाहर निकालने, अफसरों का खात्मा करने, बम बनाने की विधि सीखने तथा अन्य उपायों व साधनों की चर्चा करने जाता है।" इन्द्र जी को मैंने यह रहस्य वहां रहते कभी नहीं बताया।
पत्रकारिता - देश - सेवाः निर्धनता और जेल यात्रा
'अर्जुन' घाटे पर चल रहा था अतः सन् 1925 की जून-जुलाई में दैनिक पत्र बन्द कर इन्द्र जी ने उसे साप्ताहिक रूप दे दिया। बलवंत सिंह तो 1924 में ही तीन-चार महीने के बाद अखबार छोड़कर क्रांतिकारी दल में शामिल होने चला गया था। मैं दिल्ली से लाहौर आकर एक सामाजिक संस्था के मासिक पत्र का सम्पादक बनने के अतिरिक्त उसका वैतनिक संगठन मंत्री बन गया। "प्रसंगवश यहां उल्लेख कर दूँ कि उन दिनों पत्रकारों को मासिक वेतन (वह भी तोडकर और प्रबन्धकों को ग्राहकों, विज्ञापनों, एजैंसी आदि से प्राप्त धन की सुविधानसार) के अतिरिक्त एक खोटे पैसे की भी सुविधा नहीं थी। न ही नियमित अवकाश, कोई ओवरटाइम, प्रोविडेंट फंड, बोनस इत्यादि तथा न ही नियुक्ति व नियुक्ति-पत्र इत्यादि की पद्धति थी। प्रबंधक व सम्पादक का एक मात्र आदेश होता था कल से आप मत आना। कारण कोई नहीं और अच्छा आप कल से इस वेतन पर आ जाइए, यही नियुक्ति पत्र। इन्हीं वेद वाक्यों से गाड़ी चलती। पर इतना अवश्य था कि पत्रकार, सम्पादक, प्रबन्धक, सह व उप-सम्पादक सब यह समझते थे कि उनका एक पैर कार्यालय में और दूसरा कारागृह में है। पता नहीं कब विदेशी सरकार का वज्रपात हो जाए।
मैं बलवंत नहीं, भगत सिंह हूँ।
सन् 1929, मार्च या अप्रैल मास, लाहौर के शाह-आलमी बाजार से कुछ चीजें खरीदकर जैसे ही में शाहआलमी दरवाजे के बाहर आया। भीतर पहरे पर बैठी पुलिस चौकी पर मैं एक परिचित सज्जन से बातचीत कर रहा था। इतने में पीछे से किसी व्यक्ति ने अपने तगडे हाथों से मेरी आंखें बन्दकर ऊँचे स्वर से हंसते हुए मुझे घबराहट में डाल दिया। मै पूछ रहा था 'अरे भाई कौन है?" और वह खिलखिलाता, हंसता जा रहा थी। मैंने कहा "अरे भाई! मुझे क्षमा करों | अब तो आंखें चार होने दो।" कुछ देर बाद जब उसने अपने पंजों से मुक्त किया। मैं देखते ही अवाक हो बोल उठा, "अरे बलवंत । तुम यहां कहां? वह फिर हंसता हुआ बोला "मैं बलवंत नहीं, भगत सिंह हूँ।" मेरे मुख से अनायास ही निकल गया। तुम्हारे लिए तो सरकार का इतना भारी इनाम निकला है और एक तुम हो जो सरकार की नाक के नीचे नहीं, नाक के ऊपर बैठे हो। मेरे यह पूछने पर "यहां कहां रहते हों?" वह बोला - "पंडित जी । यह सामने ही चोबारा है। वहीं रहता हूँ। वहीं खुलकर बातचीत होगी।" मैं तत्काल भगतसिंह के साथ ऊपर चौबारे पर पहुंच गया।
चरण स्पर्श करना चाहता हूँ
यहाँ कई युवक चारपाइयों व नीचे जमीन पर बैठे थे। उन सबने एक नये आदमी को साथ देखकर प्रश्न सूचक नेत्रों से भगतसिंह को निहारा। भगतसिंह ने 'अर्जुन' में एक साथ काम करने, एक साथ ही चांदनी चौक के चौबारे पर रहने और, साथ ही खाने-पीने का वर्णन करते हुए मेरा नाम बताया और कहा “यह पंडित एक प्रकार से मेरे, गुरु और पथ-प्रदर्शक हैं।' मैंने भगतसिंह के मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, “बस बहुत तारीफ हो गयी। अब कुछ काम की बात करो।"
'अर्जुन' पत्र के बन्द हो जाने और उसका साहचर्य छूट जाने के बाद मैं क्या कार्य करता रहा, इसकी चर्चा करने के बाद “मैंने बड़ें स्नेह से उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, "भगतसिंह। विदेशी सरकार के बड़े पुर्जे और पंजाब केसरी लाला लाजपतराय के नृशंस हत्यारों के जीवन का अन्त इस प्रकार खुलेआम करके तुमने और तुम्हारे साथियों ने भारत के युवकों में जो क्रांति के प्राण फूंक दिये हैं, उसका स्मरण कर मेरा हृदय इस बात के लिए उतावला हो रहा है कि मैं तुम्हारे और तुम्हारे इन युवक मित्रों के चरणरज से अपने को कृत-कृत्य करूँ। इन शब्दों के साथ मैं उसके पादस्पर्श के लिए कुछ झुका ही था कि वह कह उठा, "पंडित जी मेरे सिर यह पाप क्यों चढ़ाते हो? मैंने तो कुछ भी नहीं किया और यदि कुछ थोड़ा-सा किया है, यह सब आप सदृश गुरुजनों की प्रेरणा का ही फल है।"
भगतसिंह के साथ तीसरी मुलाकात
भगतसिंह से मेरी तीसरी मुलाकात 1929 नवम्बर या दिसम्बर में आर्य समाज मन्दिर कलकत्ता में हुई। मैं उन दिनों सामाजिक कार्य के साथ ही एक मासिक पत्र से भी समबद्ध था। आर्य समाज मंदिर 19, कार्नवालिस स्ट्रीट (अब नाम विधान सरणी) से प्रायः सम्पर्क रहता था। वैसे ही मुस्कान भरे चेहरे पर दृढ़ निश्चय। मैंने पूछा कैसे इधर की यात्रा हुई? भगतसिंह ने इतना ही कहा, "हम तो खानाबदोश है, आज यहाँ कल वहाँ।" पुलिस हरदम हमारे पीछे है और हम हर क्षण सरकार को खत्म करने के पीछे लगे हैं। भगतसिंह समाज मंदिर के सबसे ऊपर के एक छोटे कमरे में ठहरा था। कई युवक आते जाते थे। इनमें से एक कमलनाथ तिवारी मेरा सुपरिचित और कालेज का छात्र था।
अन्तिम दर्शन
भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी दल के अन्य साथियों के दर्शन 1930 में लाहौर जेल में महीनों तक लगी अदालत में अक्सर करने जाता था। वहाँ हरदम इन्कलाब जिन्दाबाद के नारों से, जिनमें उपस्थित दर्शक भी शामिल होते थे - अदालत और जेल की दीवारें गूंजती रहती थी। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु तीनों फाँसी पर हँसते हँसते झूल गये। वे अमर रहेंगे।