पं.जवाहर लाल नेहरू जैसा मैंने जाना


मेरी पैदाइश 1964 की है जबकि नेहरू जी प्रधानमंत्री थे और उसी साल मई में उन्होंने अंतिम सांस ली। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि पं. जवाहर लाल नेहरू के बारे में हमारी जो राय है वह काफी हद तक उन लेखकों पर आधारित है जिन्होंने उनके बारे में लिखा और हमने उसे पढ़ा।


आज क ल ने हरू जी की आलोचना का फैशन है बल्कि कहना चाहिए कि लगभग हर किसी की आलोचना का चलन है , वह चाहे महात्मा गाँधी जैसा कालजयी व्यक्तित्व ही क्यों न हो।आलोचना करने वाले किसी की भी आलोचना कर सकते हैं।


जैसे कि हर आदमी के साथ होता है, अच्छाई - बुराई हर आदमी के जीवन में होती है इसी प्रकार अच्छाई -बुराई नेहरू जी के जीवन में भी थीं।


मैं नेहरू जी का धुर समर्थक नहीं हूँ न ही धुर विरोधी बल्कि उनके व्यक्तित्व से जो कुछ मुझे प्रेरणादायक लगता हैउसी की चर्चा मैं यहाँ करूंगा।


उनकी उदारता


पाकिस्तान के प्रसिद्द क्रिकेटर और राजनीतिक नेता इमरान खान ने अपनी आत्मकथा- मैं और मेरा पाकिस्तान में कुछ यूं लिखा है कि उनके देश में स्थिरता इसलिए भी नहीं आ पायी क्योंकि उन्हें उतना विशाल व् उदार नेतृत्व उस तरह लंबे समय तक उदार थे साथ ही सांस्कृतिक तत्वों की भी उन्हें खूब समझ थी। कई बार उनकी उदारता का देश को नुक्सान भी उठाना पड़ा क्योंकि हर व्यक्ति के साथ उदारता बरती नहीं जा सकती। किसी व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना है उसका निर्णय उसकी पृष्ठभूमि और प्रभाव को देखकर करना पडता है लेकिन उदारता एक मानवीय गुण है और मानवता का संरक्षण करतीहै और व्यक्ति अपने मूल स्वभाव को प्रायः बदल भी नहीं पाता है।


वे एक संवेदनशील लेखक भी थे इसलिए सबको बहुत उदार दृष्टि से देखते थे। उन्होंने कई संस्थाएं स्थापित कीं जिन्होंने भारत की कलात्मक व् सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए काम किया। भारत के समस्त धर्मावलंबी उन पर यकीन करते थे। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी वे किसी गुट से जुड़ने की बजाय गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी। जिसने भारतीय विदेश नीति को एक मौलिक रूप दिया था।


उनकी ईमानदारी


जब जवाहरलाल नेहरू ने 3 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया तो उन्होंने आनंद भवन को छोड़कर अपनी सारी संपत्ति देश को दान कर दी।


नेहरू को पैसे से कोई खास लगाव नहीं था. उनके सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज में लिखते हैं कि 1946 के शुरू में उनकी जेब में हमेशा 200 रुपए होते थे, लेकिन जल्द ही ये पैसे खत्म हो जाते थे क्योंकि नेहरू ये रुपए पाकिस्तान से आए परेशान शरणार्थियों में बाँट देते थे।


खत्म हो जाने पर वह और पैसे मांगते थे। इस सबसे परेशान होकर मथाई ने उनकी जेब में रुपए रखवाने ही बंद कर दिए।


लेकिन नेहरू की भलमनसाहत इस पर भी नहीं रुकी। वह लोगों को देने के लिए अपने सुरक्षा अधिकारी से पैसे उधार लेने लगे।


मथाई ने एक दिन सभी सुरक्षा अधिकारियों को आगाह किया कि वह नेहरू को एक बार में दस रुपए से ज्यादा उधार न दें। मथाई नेहरू की इस आदत से इतने आजिज आ गए कि उन्होंने बाद में प्रधानमंत्री सहायता कोष से कुछ पैसे निकलवा कर उनके निजी सचिव के पास रखवाना शुरू कर दिए ताकि नेहरू की पूरी तनखवाह लोगों को देने में ही न खर्च हो जाए।


जहाँ तक सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का सवाल है जवाहरलाल नेहरू का कोई सानी नहीं था।


जाने-माने पत्रकार कुलदीप नय्यर ने एक पत्रकार को ऐसी बात बताई जिसकी आज के युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुलदीप ने कुछ समय के लिए नेहरू के सूचना अधिकारी के तौर पर काम किया था।


न ह रू की ब ह न विजयलक्ष्मी पंडित के शौक बहुत खर्चीले थे। एक बार वह शिमला के सर्किट हाउस में ठहरीं । वहाँ रहने का बिल 2500 रुपए आया।


वह बिल का भुगतान किए बिना वहाँ से चली आईं। तब हिमाचल प्रदेश नहीं बना था और शिमला पंजाब का हिस्सा होता था। तब भीमसेन सच्चर पंजाब के मुख्यमंत्री होते थे।


उनके पास राज्यपाल चंदूलाल त्रिवेदी का पत्र आया कि 2500 रुपये की राशि को राज्य सरकार के विभिन्न खर्चा के तहत दिखला दिया जाए। सच्चर के गले यह बात नहीं उतरी।


उन्होंने विजयलक्ष्मी पंडित से तो कुछ नहीं कहा लेकिन झिझकते हुए नेहरू को पत्र लिख डाला कि वही बताएं कि इस पैसे का हिसाब किस मद में डाला जाए। नेहरू ने तुरंत जवाब दिया कि इस बिल का भुगतान वह स्वयं करेंगे।


उन्होंने यह भी लिखा कि वह एक मुश्त इतने पैसे नहीं दे सकते इसलिए वह पंजाब सरकार को पाँच किश्तों में यह राशि चुकाएंगे। नेहरू ने अपने निजी बैंक खाते से लगातार पाँच महीनों तक पंजाब सरकार के पक्ष में पांच सौ रुपए के चेक काटे।


उनकी सादगी


नेहरू सोलह शयनकक्षों के तीन मूर्ति भवन में रहते जरूर थे लेकिन वहाँ भी सादगी से रहने पर ही जोर रहता था। उनके शयन कक्ष में एयरकंडीशनर नहीं था।


गर्मी के दिनों में जब वह दिन के भोजन के लिए तीन मूर्ति भवन आते थे तो मुख्य बैठक के सोफे पर बैठकर आराम करते थे। वहाँ पर आगंतुकों के आराम के लिए एयरकंडीशनर लगा हुआ था। इसके बाद वह थोड़ी देर लेटने के लिए अपने शयन कक्ष में चले जाते थे।


हाजिरजवाबी


बहुत व्यस्त होने के बावजूद वह अपने दोस्तों से चुटकियाँ लेने से पीछे नहीं हटते थे। एक बार नाश्ते की मेज पर नेहरू छुरी से सेब छील रहे थे।


इस पर उनके साथ बैठे रफी अहमद किदवई ने कहा कि आप तो छिलके के साथ सारे विटामिन फेंके दे रहे हैं। नेहरू सेब छीलते रहे और सेब खा चुकने के बाद उन्होंने सारे छिलके रफी साहब की तरफ बढ़ा दिए और कहा, "आपके विटामिन हाजिर हैं. नोश फरमाएं”


1962 के भारत- चीन युद्ध के बाद नेहरू की इस चंचलता को ग्रहण लग गया। उनकी आँखों की चमक न जाने कहाँ चली गई। वह अपने आप में घुटने लगे। ओशो ने उनकी इस स्थिति के बारे में लिखा है कि वे चीन को अपना दोस्त मानते थे। जब चीन ने पीठ में छुरा घोंप दिया तो वे इस विश्वासघात को सह नहीं सके और बूढ़े लगने लगे। ओशो ने लिखा है कोई अपने दोस्त पर भी यकीन न करे तोक्या करे।