अभी कुछ समय पहले जब कुछ लोगों ने गुजरात के राजकोट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मंदिर बनाया तो उन्होंने उसे ऐतिहासिक बताते हुए यह दावा किया कि मोदी का यह मंदिर इसलिए बनाया गया है क्योंकि हम उन्हंे हद दर्जे तक चाहते हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी को लोगों के इस दिखावटी प्रेम से ऐसा आघात पहुंचा कि उन्होंने साफ शब्दोें में कह दिया कि मेरा मंदिर बनाने जैसी हरकतें हमारे देश की संस्कृति के विरुद्व हैं। बेहतर होगा कि मेरा ऐसा कोई मंदिर न बनाया जाए।
यह एक सच्चाई है कि हमारे देश में शायद इतने स्कूल व कालेज नहीं होंगे जितने कि यहाँ मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद व चर्च हैं और उनके हित भी कहीं न कहीं पर राजनीतिबाज़ों से जुड़े हुए दिखाई देते हैं। हमारे यहाँ जब भी किसी बड़े नेता या महापुरुष ने समाज को सुधारने का बीड़ा उठाया तो कुछ लोग ऐसे महापुरुषों की शिक्षाओं को आत्मसात की अपेक्षा उनकी धूपबत्ती और पूजा अर्चना का बंदोबस्त पहले ही कर लेते हैें।नरेन्द्र मोदी से पहले भी ऐसे कई राजनेता, समाज सुधारक, संतमहात्मा और पीरफकीर हो चुके हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन समाज की गली सड़ी कुरीतियों को दूर करने, गरीबों व असहायों की मदद करने, हिंदूमुस्लिम एकता को बनाए रखने, महिलाओं और दलितों की जिंदगी में अपेक्षित सुधार लाने, मेहनतकशों को उनका वाजिब हक दिलाने जैसे कामों पर न्योछावर कर दिया और वे नहीं चाहते थे कि किन्हीं चैराहों या गलियों के मुहाने पर उनके बुत भी लगाए जाएं। लेकिन ऐसे लोगों को क्या कहें जो जीते जी अपने नेता की कोई बात तक नहीं मानते परन्तु उनके मरने पर उनकी मूर्तियां और स्मारक बनाने की पहल कदमी में पीछे नहीं रहना चाहते। देश के चैराहों पर किसी नेता की संगमरमर से बनी मूर्ति स्थापित करने वाले भले ही यदाकदा वहां जाकर फूल चढ़ाने और झाडूं-पोंछा करने आदि से गद-गद हो जाएं लेकिन कालांतर में जब उन्हीं खंडित मूर्तियों के आसपास गंदगी के अंबार लगे नज़र आते हैंतो किसे कोफ़्त नहीं होगी और कौन कहेगा कि ये स्मारक ऐतिहासिक हैं। हमने तो मूर्ति स्थापना के ऐसे आयोजन कई बार सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ते देखे हैं।
वर्ष 1947 में स्वाधीनता दिवस पर लाल किले के प्राचीर से दिया गया पंडित जवाहर लाल नेहरू का भाषण, लाल बहादुर शास़़्त्री के समय मेें पाकिस्तानों हमलावरों को मंुह तोड़ जवाब दिया जाना, इंदिरा गांधी के काल में बांग्लादेश के निर्माण और पाकिस्तानी फौज के आत्मसमपर्ण की हकीकत और देश की राजनीति मंे बदलाव लाने के लिए जयप्रकाश नारायण द्वारा किया गया समग्र-क्रांति का उद्घोषकई मायनों में ऐतिहासिक कहा जा सकता है। लेकिन मौजूदा समय में जो नेता अपने अनर्गल व्यक्तयों औरजहरीली तकरीरों से देश को बांटने का काम करते हैं या अपने स्वार्थों के लिए दूसरांे पर कीचड़ उछालते हैं, संसदीय कार्यों के ठप्प करके जनता के पैसे का दुरुपयोग करते हैं या फिर सरकारी नियुक्तियाँ में भाई-भतीजावाद की पैरवी करते हैं तो उनके ऐसे कामों को ऐतिहासिक कहना भी एक भूल है। असल में तो उनके अर्मयादित कार्यों को उपेक्षा के कूडेदान में फैंक देना ही उचित है। इतिहास की रचना आडम्बर और दिखावे से नहीं होती बल्कि इसके लिए तो जिंदादिली के साथ हर अन्याय से जूझना पड़ता है।
मार्कंडेय काटजू हमारे देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायधीश भी रह चुके हैं। लेकिन पिछले दिनों जब उन्होंने अपने एक ब्लाॅग में गांधी जी को अंग्रेजों का ऐजेंट और सुभाष चन्द्र बोस को जापानी ऐजेंट बताया तो कई लोग उनकी इस ब्लाॅगबाज़ी पर आक्रोशित दिखलाई दिये। लोकतंत्र में कोई भी किसी के विचारों से सहमत या असहमत हो सकता है। लेकिन काटजू को यह बताना चाहिये था कि क्या गांधी या सुभाष को दूसरों का ऐजेंट बताते समय उन्होंने इसका कोई शोध किया है? यदि हां, तो इस संबंध में कुछ तर्क, तथ्य और सबूत तो पेश करते। इस बात के कई प्रमाण हैं कि गांधी जी ने कभी किसी ब्रिटिश पाॅलिसी को आगे नहीं बढ़ाया। उनके लेखों से पता चलता है कि उन्होंने सभी धर्मों का विस्तार से अध्ययन किया और अंगे्रजों के जुल्म का विरोध भी अपने अहिंसक सत्याग्रह के जरिये किया। सुभाष चन्द्र बोस को अहिंसा का मार्ग ठीक नहीं लगा तो उन्होंने यह ऐतिहासिक नारा देकर देश को जगाया कि 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' तो क्या अपनी आज़ादी की मांग करने वाले को किसी दूसरे मुल्क का ऐजेंट करार देना शोभनीय है?
उन्होंने अकबर कीतुलना गांधी जी से करते हुए उसे भारत का निर्माता भी बताया। यह सही है कि अकबर के दौर में 'आइडिया आॅफ इंडिया' मौजूद था परवह 16वीं सदी का भारत था। आज का भारत तो 1947 में मिली आज़ादी के बाद ही अपने वजूद में आया तो इसकी तुलना 16वीं सदी से कैसे की जा सकती है?
आजकल कई लोग बिना सोचे समझे जब दूसरों की आलोचना करते हैं तो वह सस्ती लोकप्रियता पाने का माध्यम बन जाती है। जो लोग गणित ओर फिज़िक्स पर टिप्पणी नहीं करते वे भी अपने वक्तव्यों को ऐतिहासिक बताते हैं। ऐसे में इतिहास के सिद्धांतों और पद्धति को तोड़-मरोड़ करया उन्हें अपनी सहूलियत के हिसाब से पेश करना वस्तुतः इतिहास की बेइज्जती करना है। अकादमिक जबान में कहें तो इतिहास बोध भी वक्त के साथ बदलता है। हम इतिहास से जितना दूर भागते हैं उससे हमारा नज़रिया भी परिवर्तित होता है। लेकिन इतिहास बोध के सवाल पर यदि हम अपनी नैतिकता के मायने ही बदल दें तो यह उचित नहीं है।
यह एक सच्चाई है कि जो इतिहास शब्दों में लिखा जाता है वह स्कूल-काॅलेज की लाइब्र्रेरियों में पड़ा धूल फांकता दिखलाई देता है। लेकिन जो इतिहास अपने कर्मों से रचा जाता है वह युगों तक लोगों के दिलों पर अंकित रहता है।
जूलियो इग्लेसियस का सपना था कि वह अपनी पसंदीदा क्लब रियल मेड्रिड की ओर से फुटबाल खेले और चैम्पियन बनें। धीरे-धीरे अभ्यास करने से वह एक अच्छा गोलकीपर बन गया। अपने खेल में निपुण होने के कारण वह सोचने लगा किवह बहुत जल्द ही स्पेन का सबसे बड़ा गोलकीपर बन जाएगा। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वर्ष 1963 में उसकी कार का एक्सीडेंट हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। उसकी कमर के नीचे का भाग लकवाग्रस्त हो गया। डाॅक्टरों ने उसे भविष्य में फुटबाल न खेलने की हिदायत दी। इसमें वह इतना निराश हो गया कि अपना दर्द कम करने के लिए उसने गिटार बजाना शुरू कर दिया और गिटार बजाते समय वह अपने लिखे गाने भी गाने लगा। अपनी दुर्घटना के पांच साल बाद उसने एक गायन प्रतियोगिता में भाग लिया और अपना गाना 'लाइफ गोज़ आॅन द सेम' गाकर पहला पुरस्कार जीता और बाद में संगीत की दुनिया में काफी शोहरत पाकर उसने एक नए इतिहास की रचना की।
आज जिस भारतीय सिनेमा पर हम नाज़ करते हैं उसकी बुनियाद भी कभी धुंडीराज फालके, जिन्हें दादा साहेब फालके के नाम से जाना जाता है ने रखी थी। 13 अप्रैल, 1970 को जन्मे दादा साहेब फालके ने सर जे.जे. स्कूल आॅफ आर्ट से पेंटिंग की ट्रेनिंग ली और बाद में पांच पौंड का एक सस्ता कैमरा खरीद कर उन्होंने फोटोग्राफी में भी अच्छी महारत हासिल की। इसके बाद उन्हों पुरातत्व विभाग में ड्राॅफ्समैन की नौकरी की और जब वह जर्मनी से प्रिंटिंग टैक्नोलाॅजी की ट्रेनिंग लेकर मुम्बई आए तो कुछ समय बाद वह जिस प्रिंटिग प्रेस का कारोबार करते थे वहां उनका अपने साझीदार से झगड़ा हो गया। इस पर लोगों ने उन्हें अपनी प्रिंटिंग प्रेस खोलने का सुझाव दिया तो उन्होंने कहा कि, 'मैं अपने साझीदार से धोखा नहीं कर सकता, मैं कोई नया काम शुरू करूंगा।'
वह एक दिन गिरगांव से गुजर रहे थे कि उनकी निगाह पर पोस्टर पर पड़ी।तब उन्होंने एक टैंट के बनें थियेटर में 'लाइफ आॅफ जीसस क्राइस्ट' फिल्म देखी। इसके बाद उन्हें अपनी फिल्म बनाने का जुनून सवार हो गया। वे दो महीनों तक लगातार फिल्में देखते रहे। भारतीय संस्कृति और पौराणिक कथाओं पर आधारित फिल्में बनाने की उनकी धुन को देखकर उनके करीबी रिश्तेदारों ने उन्हें पागल घोषित कर दिया। इसी दौरान जब उन्होंने फिल्मों पर दिन में बीस-बीस घंटे के प्रयोग किये तो उससे उनकी एक आंख भी जाती रही। मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। ऐसे में फिल्म निर्माण के लिए उनके पास न तो मूवी कैमरा था, न डिवलेपिंग मशीन थी और न ही परफोरेटर जैसे जरूरी उपकरण थे। पैसे की तंगी के कारण उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उन्हें अपने तमाम जेवर तो दिये ही, उसी के साथ उसने अपनी बीमा पाॅलीसी भी दे दी जिसे गिरवी रखकर फालके साहब ने ऊंची दर पर पैसों का बंदोबस्त कर लिया और वह अपनी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' बनाने की तैयारी में जुट गए। तब वेश्याओं को छोड़कर कोई भी संभ्रांत परिवार की महिला उनकी फिल्म में नायिका बनने को तैयार नहीं हुई। ऐसे में उनकी नायिका का रोल उनके रसोइये सालुंके ने किया और राजा हरिशचंद्र के बेटे रोहतास की भूमिका दादा साहेब फालके के सात वर्षीय बेटे भालचंद्र फालके ने निभाई। छह महीने में 3700 फुट लम्बी बनीं यह फिल्म ओलंपिया सिनेमा हाल में रिलीज हुई तो इस फिल्म ने अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। इसके बाद दादा साहेब फालके ने 125 फिल्मों का निर्माण किया जिन्हें दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया। फालके ने अपनी फिल्मों के निर्माण में अपनी पत्नी सरस्वती बाई के योगदान को भी कभी नहीं भुलाया। वह कहते थे कि, 'अगर सरस्वती ने मेरा साथ न दिया होता तो मैं भी शायद गुमनामी के अंधेरे में खो जाता।' कहना गलत न होगा कि दादा साहेब फालके वास्तव में ऐसे जिंदादिल इंसान थे जिन्होंने कई दुश्वारियां झेलकर भी अपना इतिहास स्वयं बनाया।
दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्होंने अपनी जिंदादिली के साथ न केवल अपने कार्यक्षेत्रों में कामयाबी के मार्ग प्रशस्त किए हैं बल्कि उन्होंने अपने जुनून से सफलता के नए इतिहास भी रचे हैं। नेपोलियन बोनापार्ट से लेकर जाॅर्ज वाशिंगटन तक, मदन मोहन मालवीय से लेकर मोहम्मद रफी तक और कपिल देव से लेकर कल्पना चावला तक ऐसी कई विभूतियां हैं जिन्होंने अपनी योग्यता, साहस, कार्यकुशलता, लगन और ईमानदारी के साथ तवारीख के पन्नों को स्वर्णमयी बनाया है। शेक्सपीयर, प्रेमचंद, गोर्की, तुलसी, कबीर और गालिब की लिखी रचनाएं आज भी अद्वितीय मानी जाती हैं क्योंकि इन्होंने बड़ी बेबाकी के साथ अपने समकालीन समाज केलोकाचरण और विद्रूपताओं को अपनी रचनाओं में सजीव कर दिखलाया।
'इंडिया टी.वी.' न्यूज़ चैनल के चेयरमैन और मुख्य संपादक रजत शर्मा भी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। मैंने हमेशा उन्हें एक सजग पत्रकार के रूप में देखा है और उनके बहुचर्चित शो 'आपकी अदालत' को देखकर यदि अधिकांश लोग उन्हें जनता का वकील कहते हैं तो वह भी गलत नहीं है।
रजत शर्मा कितने ज़िंदादिल, बेबाक और विनम्र इंसान हैं यह उनकी इसी बात से पता चलता है जब उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद को शेयर करते हुए बताया कि 'मेरा बचपन पुरानी दिल्ली के सब्जीमंडी इलाके की उन गलियों में बीता है, जहां कभी एक छोटे से कमरे में मेरी बीमार मां, पिता जी और हम सात बहन-भाई इकट्ठे रहा करते थे। तब वहां बिजली-पानी का कोई इंतजाम नहीं था और हम बाहर के सार्वजनिक नल से पानी की बाल्टियां भर कर घर लाते थे और उसी से नहाते-धोते थे। तब मैं नगरपालिका के स्कूल का छात्र था और रात को रेलवे स्टेशन के निकट बनें एक लैंप पोस्ट की रोशनी में बैठकर पढ़ा करता था। उन दिनों टीवी सैट भी किन्हीं विरले घरों में हुआ करते थे। हमारे मुहल्ले के लोग प्रायः उसी पड़ोसी के घर टीवी देखने जाते थे जहां एक ही टीवी सैट लगा हुआ था। एक दिन जब उस पड़ोसी ने मुझे अपने घर में टीवी नहीं देखने दिया तो मेरा मन रूंआसा हो गया। तभी मेरी परेशानी को भांपकर मेरे पिता जी ने कहा, 'तुम कुछ ऐसा करो जिससे तुम टीवी स्क्रीन पर आओ और लोग तुम्हें देखें।' बाद में उनका यही कथन मेरे जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट बन गया।
'इसके बाद जब मैंने एम.काॅम की परीक्षा दी और नौकरी की तलाश में निकला तो मैं जनार्दन ठाकुर से मिला जिन्होंने उस समय आनंद बाज़ार पत्रिका को छोड़ दिया था और जो एक सिंडीकेट काॅलम शुरू करने की सोच रहे थे। मैंने उनके साथ रहकर काफी विषयों पर शोध किया और जब मेरी पहली स्टोरी आॅनलुकर मैगज़ीन में छपी तो मुझे उसका पारिश्रमिक 300 रुपये मिला। 28 साल की उम्र में जब मैं संडे आॅॅब्जॅरवर का संपादक नियुक्त हुआ तो उन्हीं दिनों एक हवाई यात्रा में मेरी मुलाकात सुभाष चंद्रा से हुई जिन्होंने तभी जी.टी.वी. शुरू ही किया था। वह किसी रोचक इंटरव्यू की तलाश में थे। तभी मैंने उन्हें 'आपकी अदालत' का एक रफ प्रिंट दिया। उसका एपीसोड जब टेलिकास्ट हुआ तो दर्शकों ने भी उसकी जमकर तारीफ की। इसके बाद 2004 में जब मैंने अपने न्यूज चैनल 'इंडिया टीवी' की शुरुआत की तो दो साल तक मैं इसी चिंता में डूबा रहा कि इसके लिए फंड कैसे जुटाया जाए? ऐसे में जब अपने स्टाॅफ को सैलरी देने का सवाल सामने आया तो मेरे पास दो ही विकल्प थे। या तो मैं चैनल बंद कर दूं और अपनी हार मान लूं या फिर अपना रास्ता बदल कर कोई दूसरा विकल्प ढूंढ लूं जिससे चैनल चलता रहे। तब मैंने दूसरे विकल्प को चुना और अपने कार्यक्रमों में समयानुकूल बदलाव भी किए। ऐसे में मेरा ध्यान हमेशा अपने चैनल की रेटिंग और अपनी न्यूज़ पर ही फोकस रहा। आज मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि देश के तीन बड़े टीवी चैनलोंमें 'इंडिया टीवी' का नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है।'
टीवी चैनलों की दुनिया में जो इतिहास रजन शर्मा ने रचा है उसके लिए उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म भूषण जैसे सम्मान के साथ कई अन्य पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। देश की कई बड़ी हस्तियों का इंटरव्यू लेते समय जैसे तीखे सवाल रजत शर्मा ने उनसे पूछे और पूछते हैं, उसे देखकर तो मैं फिलहाल यही कह सकता हूं कि-'जिसके लफ़्ज़ों में हमें अपना अक्स मिलता है, बड़ी नसीब से कोई ऐसा शक्स मिलता है।'
किसी भी क्षेत्र में इतिहास रचने की बात बहुतेरे लोग करते हैं। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। ज़िन्दगी में कुछ खास करने की आदत तो बचपन में ही पड़ जाती है और बाद में वही हमारी ताकत बनती है। वैसे भी आलसी और मुर्दार किस्म के लोग कभी इतिहास नहीं रचते। इतिहास वही रचते हैं जो दूसरों से हटकर सोचते हैं, धैर्य से सभी बाधाओं को दूर करते हैं, मुश्किल समय में मैदान छोड़कर नहीं भागते, अपने काम और गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करते और जो अपनी कमजोरियों को भी अपना प्लस प्वाइंट बनाने का दम रखते हैं। यदि आपमें ये सब गुण हैं तो पूरी जिंदादिली के साथ इन्हें अपने व्यवहार में लाईये और फिर देखिये कि नया इतिहास रचने की उम्मीद आपको आपके द्वार पर खड़ी दिखाई देगी। किसी ने ठीक ही कहा है-'ज़िन्दगी अपने दम पर जी जाती है, औरों के कंधों पर तो जनाज़ा उठता है।'
- जगदीश चावला
(प्रगतिशील साहित्य - नवम्बर 2015 अंक में से)