....ऐसे भी जमाने में कुछ इन्सान हुए हैं।


यह युग जिसमें हम विचरण कर रहे हैं, गतिप्रधान युग है। ठहरने का समय किसी के पास भी नहीं है। ऐसे गतिशील युग में लाखों लोग एक व्यक्ति के लिए एकत्र हो जाएं, बहुत बड़ी बात है।


18 मई को उनकी अन्तिम यात्रा में लाखों का हुजूम देखा गया। इनमें वृद्ध भी थे, युवा भी। महिलाएं और बच्चे भी। यह तब था जब कि सूर्यदेव स्वयं जैसे रोब प्रदर्शन पर उतारु थे। भयंकर गर्मी और दिल्ली में पानी की कमी, इसके बावजूद लाखों लोगों का यह समूह, जनसामान्य को आश्चर्यचकित कर रहा था। वे सोच रहे थे कि आखिर ये लोग आये क्यों हैं? यह कोई फिरका अथवा सम्प्रदाय नहीं था, जो दिल्ली में एकत्रित था बल्कि शान्तिप्रिय-सामान्य । लोग थे जो अपने-अपने राज्यों, जिलों और गांवों से चलकर आये थे।


अखिर कौन था वह व्यक्ति जिसने उन्हें, दिल्ली आने को विवश किया?


समाचार पत्रों ने लिखा-निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी की अन्तिम यात्रा में लाखों को जनसमूह उमड़ा।


प्रश्न उठता है कि निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी में ऐसा क्या था, जिसके कारण लाखों लोग असुविधाओं की परवाह न करते हुए दिल्ली आ गये।


इस विशय पर विचार करने पर पाता हूँ कि निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी में लोगों को जोड़ने की असाधारण क्षमता थी


उदाहरण के लिए मुझे एक प्रसंग ध्यान में आता है। लगभग दो वर्ष पहले की बात है, सन्त निरंकारी कालोनी के मैरिज ग्राउण्ड में वार्षिक सन्त समागम की सेवाएं चल रही थीं । एक युवक फावड़ा चला रहा था। तसला भर गया था और बाबा जी उसके पास शान्त खड़े थे लेकिन उस युवक को इसका पता न था। वह अचानक बोला, "कृपा करके यह तसला मेरे सिर पर रखवा दीजिए।" बाबा जी ने निःसंकोच वह तसला उसके सिर पर रखवा दिया। अब उसने देखा कि सामने तो बाबा जी स्वयं मौजूद है और उसने उनसे तसला रखवाने का कहा है तो वह सुखद आश्चर्य और ग्लानि में डूब गया क्योंकि बाबा जी कभी स्वयं तसला उठाएं उसने कभी ऐसा सोचा न था।


जिन्होंने सन्त समागम की सेवाएं देखी हैं, वे जानते हैं कि बाबा जी कही भी, किसी भी समय पहुंच जाते थे। सुबह 5 बजे भी रात को एक बजे भी। बिना किसी औपचारिकता या तामझाम के। वे वाकई विशिष्ट थे लेकिन स्वयं को विशिष्ट समझते नहीं थे।


उनमें अहंकार रत्ती भर भी नहीं था इसलिए सब लोगों को वे अपने लगते थे और सब लोग उन्हें अपने लगते थे।


उनकी दृष्टि में न कोई निरंकारी था और न कोई गैर निरंकारी । वे कहते थे -


निरंकारी होना कुछ होना नहीं है,


यहां पाना ही पाना है, खोना नहीं है।


यानि कि निरंकारी होना कुछ बनना नहीं है बल्कि जो बने हैं, अभिमान से उसके भी मुक्त होना है। समाचार पत्रों ने बेशक उन्हें निरंकारी सम्प्रदाय का प्रमुख कहा, अंग्रेजी के अखबारों में कहा, Head of the Nirankari sect लेकिन उनके Vision (दृष्टि) में Sect अथवा सम्प्रदाय की गुंजाइश नही थी।


वे किफायत तो बरतते थे लेकिन लालची नहीं थे। आप यह जानकर हैरान होंगे कि उनकी जेब में पैसे होते ही नहीं थे जब कि वे जहां खड़े हो जाते थे, लोग उनके सामने श्रद्धा से नत हो जाते थे। और वे उन्हें कुछ न कुछ भेंट करना चाहते थे। बाबा जी उन्हें निराश भी नहीं करते थे लेकिन पैसा जेब में रखने का उनका स्वभाव नहीं था, बचपन से ही |


सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच वे मौजूद होते थे लेकिन उनके चेहरे में ऐसी पवित्रता दिखती थी, जैसी अबोध शिशु में होती है |


उनके देहावसान का उन्हें तो दुख हुआ ही, जो उनके अनुयाई थे लेकिन जो उनके अनुयाई नहीं थे, उन्हें भी इसका बहुत दुख हुआ क्यों कि वे दुनिया में बेदाग आये और बेदाग ही गये । कबीर के शब्दों में -


ज्यू की त्यू धर दीनि, चदरिया, झीनी रे झीनी....


उनका हृदय इतना बड़ा था कि अपने पिता के हत्यारे को भी माफ कर दिया, इसीलिए लोगों ने दिल से उनके लिए श्रद्धा प्रकट की क्यों कि वे सबके लिए आकाश की भाँति विशाल थे।


उनके चेहरे पर अलौकिक नूर था और आँखों में थी बाल सुलभ सरलता । उस अलौकिक नूर और बालसुलभ सरलता ने ही लाखों लोगों को आंसू बहाने को बाध्य कर दिया। अभी तो यही शेअर दिल से निकल रहा है -


जाने क बाद जिनको ढूंढता रहता है फिर ज़माना,
ऐसे भी ज़माने में कुछ इंसान हुए हैं |