जीवन प्रेम का नाम है-प्रेम जो कि मित्रता है,भक्ति है,रिश्ता है,आनंद है |प्रेम होली है,दिवाली है ,ईद है,क्रिसमस है ,गुरुपर्व है |प्रेम शरीर से जुड़ जाए तो सम्बन्ध कहलाता है और हरि से जुड़ जाए तो आनंद कहलाता है |बहरहाल हर कोई प्रेम की तलाश में है |यह दूसरी बात है कि हर किसी को प्रेम मिलता नहीं है क्यूंकि बीच में कुछ ऐसा मिल जाता है जो प्रेम से ज्यादा महत्व्पूर्ण लगता है और हालात ऐसे हो जाते हैं -कबीरदास जी के शब्दों में-
आये थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास |
जरूरी है कि लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखकर आगे बढ़ा जाए |
आज हम जिन्हें महापुरुष मानते हैं वे वाही लोग हैं जिनका ध्यान सदा अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहा |वे यदि समाज-सुधार के प्रति समर्पित थे जैसे राजा राममोहन राय तो उन्होंने सती प्रथा के उन्मूलन , स्त्री -पुरुष समानता या विधवा पुनर्विवाह के लिए पूरी निष्ठा और दृढ संकल्प से काम किया |वैज्ञानिक थे जैसे आर्किमिडीज़ ,तो नहाते समय भी उनका ध्यान अपनी खोज में था और नहाते समय ही वे अपनी खोज के निष्कर्ष पर पहुंचे |अर्जुन थे तो निशाना लगाते समय उन्हें सिर्फ चिड़िया की आँख दिख रही थी |तभी उन्हें निशाना लगाने का अवसर भी मिला और वे सफल भी हुए |
आज यह एक बड़ी समस्या है कि महापुरुषों को भी जाति-बिरादरी आदि के चश्मे से देखा जा रहा है |जो सकारात्मक विचारधारा रखते हैं वे कहीं से भी गुण ही ग्रहण करते हैं और एक दिन गुणों के भण्डार सिद्ध होते हैं |
अक्सर लोग एकलव्य के कारण अर्जुन को खलनायक की तरह देखने लगते हैं |मैं भी अर्जुन को सर्वगुण संपन्न नहीं मानता लेकिन अपने विषय के वो माहिर थे |एकलव्य भी उसी विषय के माहिर थे और कर्ण भी |मेरी दृष्टि में तीनो ही सम्मान के पात्र हैं और प्रेरक व्यक्तित्व के स्वामी है |डॉ.अम्बेडकर शोषित वर्ग में पैदा हुए छुआछूत के शिकार भी लेकिन उन्होंने सिर्फ नफरत ही नहीं पाली बल्कि अन्याय के कारण उपजी नफरत का दमन करके उसे दृढ संकल्प में परिवर्तित किया और बहुत ऊंची योग्यताएं हासिल की |आज चूंकि प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र में हर किसी की वोट का मूल्य बराबर है इसलिए डॉ. अम्बेडकर का विरोध कोई चाहकर भी नहीं करता |हालांकि हर वह व्यक्ति जो उनकी प्रशंसा करता है वास्तव में उनका प्रशंसक नहीं है |उनका सम्मान करना बहुत लोगों के लिए एक मजबूरी है और जो मजबूरी में किया जाए वह सम्मान होता ही नहीं है इसलिए ऐसे सम्मान की कोई महत्ता नहीं है |मैं डॉ. अम्बेडकर का इसलिए सम्मान करता हूँ क्योंकि उन्होंने उस वर्ग के लिए भी आगे बढ़ने के द्वार खोले जिनके पास किसी समय पढ़ने -लिखने का अधिकार भी नहीं था |प्रतिभा होने के बावजूद उन्हें वही काम करना पड़ता था जो उनके पूर्वज करते आये थे |इसका परिणाम यह होता था कि जो शोषित था वह हमेशा शोषित ही बना रहता था और जो शोषक था वह शोषक |डॉ. अम्बेडकर ने अपनी योग्यता और अवसर का इस्तेमाल करके इस परम्परा को तोड़ा और बिना हथियार चलाये समाज में क्रांति ला दी लेकिन किसी के मन को बदलना क़ानून का काम नहीं है | मन को बदलने का काम तो अध्यात्म का है जो कि आज उतना प्रभावशाली नहीं है जितना कि होना चाहिए |
सत्य यह है कि हर मनुष्य को अपने मन को बड़ा करके जीवन व्यतीत करना चाहिए और प्रेरणा पुंजों से तो प्रेरणा ही ली जानी चाहिए,चाहे वे किसी भी वर्ग या समाज में पैदा हुए हों |हम तो मार्टिन लूथर किंग का भी उतना ही सम्मान करते हैं जितना राजा राममोहन राय,डॉ.अम्बेडकर या अब्राहम लिंकन का |अमेरिका या किसी और देश में उत्पन्न होने के कारण कोई हमारे लिए पराया नहीं हो जाता क्योंकि अध्यात्म कहता है-
एक नूर है सबके अंदर न्रर है चाहे नारी है
ब्राह्मण ,खत्री,वैश्य ,हरिजन एक की रचना सारी है |
हिन्दू,मुस्लिम ,सिख,ईसाई,एक प्रभु की हैं संतान
मानव समझके प्यार है करना ,हमने सबसे एकसमान |
ये पंक्तियाँ निरंकारी बाबा अवतार सिंह जी (1900-1969 )ने लिखी हैं |आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि निरंकारी मिशन में जातीय भेदभाव किसी भी स्तर पर नहीं है |यह निरंकारी मिशन में सम्मिलित होने की एक शर्त है-बाबा अवतार सिंह जी ने स्वयं लिखा है-
कहे अवतार यह दूजा प्रण है,वर्ण-जात नहीं मननी तूँ
अर्थात जातिवाद को मानना ही नहीं है और यह पांच प्रणो में से दूसरा है |
डॉ. अम्बेडकर ने यदि कानूनी स्तर पर समानता लाने का काम किया तो बाबा अवतार सिंह जी ने मन के स्तर पर यह काम किया |इस दृष्टि बाबा से अवतार सिंह जी भी एक क्रांतिकारी ही सिद्ध होते हैं |चौदहवीं शताब्दी में यही काम कबीरदास जी ने किया था |ऐसे महापुरुषों का हर किसी को सम्मान करना करना चाहिए बिना यह जाने कि वे किस पृष्ठभूमि से आये थे |
बाबा अवतार सिंह जी ने आध्यात्मिक दीक्षा ली -1929 में |जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था 1919 में और इतिहास में मैंने पढ़ा है कि वे उस सभा में सम्मिलित हुए |इस प्रकार वे एक देशप्रेमी व्यक्ति थे |उनका अपने शिष्यों को यही सन्देश था कि-हर किसी से सीखना चाहिए |अहंकार से बचकर किसी के भी गुणों को ग्रहण किया जाना चाहिए |मेरे ख्याल से यह आध्यात्मिकता का महत्व्पूर्ण गुण है |
मानव होने के नाते मानवता के प्रति निष्ठावान होना जरूरी है अर्थात अपनी दृष्टि को बड़ा करना जरूरी है |प्रजातांत्रिक प्रणाली बहुत श्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन छोटी सोच के लोगों में आकर अच्छे से अच्छी प्रणाली भी उतनी लाभदायक नहीं सिद्ध हो पाती |
इन सब तथ्यों के बावजूद यह एक निश्चित तथ्य है कि किसी भी विषय में सफलता प्राप्त करने के लिए महान व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी जरूरी है वे चाहे किसी भी देश या समाज से क्यों न हो |
मेरा तात्पर्य है कि किसी को भी यदि सफलता प्राप्त करनी है तो लक्ष्य के प्रति एकाग्रता रखनी चाहिए तभी सफल हो सकते हैं | स्वामी विवेकानंद ने लिखा है -
उत्तिष्ठत जाग्रत ,प्राप्य वरान्निबोधत
अर्थात उठो-जागो जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो बढ़ते रहो |
लक्ष्य के प्रति एकाग्रता किसी भी लक्ष्य की सफलता के लिए पहली ज़रुरत है और लक्ष्य की पवित्रता उससे भी पहले चाहिए | लक्ष्य की पवित्रता के अभाव में जीवन में भी पवित्रता का अभाव हो जाएगा |जीवन से यदि प्रेम है तो पवित्रता को पहले स्थान पर रखना होगा |फिर हर महापुरुष अपना होगा और इस विज़न के साथ जियेंगे तो जीवन में अपनापन होगा |अपनापन होगा तो सोच बड़ी होगी |इस स्थिति में विचारों की पवित्रता हमें रचनात्मक और समर्थ मानव सिद्ध करेगी |