धर्म और अपराध


डॉ राधाकृष्णन जी धर्म का लक्ष्य बताते हुए कहते हैं-धर्म का लक्ष्य है-अन्तिम सत्य का अनुभव। गोस्वामी तुलसीदास जी दया को धर्म का पहला लक्षण बताते हैं, यथा-दया धर्म का मूल है। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं - सत्य, क्षमा, प्रेम, दया, शान्ति आदि।


भारत में धर्म की जड़ें इतनी गहरी हैं कि विश्व में इसे धर्मप्रधान देश माना जाता है लेकिन पिछले दिनों हरियाणा के पंचकला में तथाकथित धार्मिक लोगों का जो तांडव देखने को मिला उससे लगभग हर इंसान यह सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या धर्म इतना विनाशकारी हो सकता है ? करीब बत्तीस लोग मर गये। गाडियाँ फेंक डाली गयीं। जन –धन का भयंकर नुकसान हुआ और यह सब किया एक बाबा के अनुयाईयों ने।


भारतीय जन-जीवन में बाबा एक बहुत सम्मानित सम्बंध है। हमारे परिवारों में जो बाबा या दादा होते हैं उनका बच्चों से इतना गहरा लगाव होता है कि दोनों के प्राण जैसे एक -दूसरे में बसे होते हैं। बाबा गुरमीत राम रहीम इंसा ने इस सबसे सम्मानित रिश्ते की मर्यादा को कलंकित कर दिया है। जरा सोचिए, उन बच्चियों के बारे में जो उसके पास जीवन सफल करने आई थीं और अपनी अस्मिता पूँवाकर, यानि सब कछ खोकर निकलीं। परिवार वालों ने उनकी बातों पर यकीन नहीं किया और अंततः उन्हें अकेले मैदान-ए-जंग में कूदना पड़ा और पंद्रह वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद वे बाबा को बेनकाब करने में सफल हुईं।


इन पंद्रह वर्षों में उन्होंने क्या-क्या नहीं झेला होगा, एक ताकतवर आदमी जिसने खुद के नाम के पीछे राम और रहीम का नाम जोड़ रखा था। उसके पीछे चलती हजारों की भीड़ जो अपना विवेक, अपनी बुद्धि उस व्यक्ति को अर्पित कर चुकी थी जिसकी आदतें पुराने मुगल बादशाहो' से मिलती-जुलती थीं, अय्याशी जिनका शौक था। राम की मर्यादा और रहीम की करुणा से उसका कोई लेना -देना नहीं था। तभी तो मुझे देवानन्द की फिल्म का गाना याद आ रहा था-देखो ओ दीवानों ऐसा काम ना करो, राम का नाम बदनाम ना करो।


सच्चा धर्म इंसान को अंधा नहीं बनाता बल्कि विवेकी बनाता है। जब कोई इंसान किसी इंसान के आगे अपना विवेक तक त्याग दे तो खतरा शुरू हो जाता है और वह खतरा पतन की ओर ले जाता हैव्यक्तिगत और सामाजिक दोनों रूपों में।


हर धर्म में धर्माध लोग हैं लेकिन पतन नहीं है क्यूंकि उनके रहनुमा इतने अन्धे नहीं है। धर्म का मार्ग तो तप का मार्ग है, परोपकार का मार्ग है, विश्व शांति का मार्ग है। स्वामी विवेकानंद से एक बार किसी ने पूछा था कि क्या Blind faith (अंधविश्वास) से उदार संभव है ? स्वामी विवेकानंद ने कहा-हाँ, बशर्ते जिस पर अंधविश्वास किया जा रहा हो, वो अंधा नहीं हो।


यदि विवेक की आँख बन्द हो तो धर्म का काम भी अपराध हो सकता हैक्यूंकि एक समर्पित शिष्य का कर्तव्य है। कि वह अपने गुरु के प्रति उस प्रकार समर्पित हो जैसे एक पत्थर मूर्तिकार के प्रति। लेकिन समर्पित होने से पहले गुरु को परखना जरूरी है कि क्या उसके जीवन में वह उपलब्धि मौजूद है जो इंसान को देवता बना दे। यदि समर्पण तो सच्चा है लेकिन गुरु सच्चा नहीं है, तो धर्म भी अपराध हो सकता है इसलिए विवेकी होना पहली शर्त है। विवेक के साथ जब धर्मपालन करेंगे तो मानवता का नाम रोशन होगा, स्वयं का भी और देश का भी। अन्यथा दर्पण को भी मुह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे, दुनिया तो दुनिया है।