आपने जो शाल मुझे दिया है वह क्या तन.मन,धन के समर्पण से बाहर है ?

         सर्दी के दिनों मैं जो शाल मुलखराज जी ओढ़ते थे वह मैंने ही उनके चरणों में समर्पित किया है,यह कहते समय उस नौजवान की मुद्रा समर्पण की तो बिलकुल ही नहीं होती थी |

मुलखराज जी ने दुनिया भी देखी थी और भक्ति भी |

        वे बाबा हरदेव सिंह जी के युग में जी रहे थे |बाबा जी ज्ञान को अच्छी तरह समझते थे और लोग किस प्रकार शब्द के मर्म को समझे बिना शब्दों का इस्तेमाल करते हैं यह मुलखराज जी अच्छी तरह समझते थे |

         उन्होंने अगर सेवा की थी तो उसके पीछे बदले की भावना जरा सी भी नहीं थी 

|उनकी आय भी निरंकार-सतगुरु की कृपा से ठीक -ठाक थी इसलिए सेवा करके उसके बदले में कुछ वसूल करने की उनकी भावना नहीं थी |

       एक दिन तो उन्होंने लोहे की कढ़ाई का पानी उस कीमती शाल से पोंछ दिया |मुलखराज जी जब सेवादल में ड्यूटी कर रहे होते थे तो गुरु और निरंकार को ही सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण समझते थे |

उस नौजवान की बदले में की गयी सेवा की भावना को वे अच्छी तरह समझ रहे थे | 

        वे यह भी सुन चुके थे कि नौजवान अपने दोस्तों में मुलखराज जी का अपमान भी कर चुका था लेकिन सेवादल के जवान ऐसी शिक्षा ले चुके होते हैं कि मान-अपमान आदि को पीछे छोड़ चुके होते हैं |

उस शाल का वे जैसे मर्जी इस्तेमाल कर लेते थे | 

  एक दिन उन्होंने उस नौजवान को बुलाया और उससे बोले-आप एक बार वह शाल मुझे भेंट कर चुके हैं,फिर उसे भूल क्यों नहीं जाते ?

        जो चीज हम एक बार सतगुरु और निरंकार को समर्पित कर देते हैं तो उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं रहता | 

          भक्ति में गुरु के चरणों में जो पहला प्रण हमने सुना है उसमें स्पष्ट कहा गया है कि-

जिसकी वस्तु उसकी समझो काम नहीं तकरार का है, कहे अवतार यह पहला प्रण है,तन.मन धन निरंकार का है |

            आपने जो शाल मुझे दिया है वह क्या तन.मन,धन के समर्पण सेबाहर है ? 

- रामकुमार सेवक