निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी का अनुभव बहुत गहरा था और सहजता उनका दिव्य गुण |बड़े बड़े अनुभव वे अत्यंत सरल शब्दों में जाहिर कर देते थे |
बाबा जी कहा करते थे कि - it's nice to be important but it's more important to be nice (महत्वपूर्ण होना अच्छा है परन्तु अच्छा होना अधिक महत्वपूर्ण है |)
बाबा जी ऐतिहासिक सन्दर्भों का भी विश्लेषण करते थे और उनमें निहित सत्य संदेशों से हम शिष्यों को अवगत कराते थे |
दीपावली के दिन रामजी अयोध्या लौटे थे |यद्यपि ऐसा भी हो सकता है कि रामजी के वनवास से पहले दीपावली मनाने की कोई परंपरा ही न हो चूंकि विद्यार्थी जीवन में हमने पढ़ा है कि रामजी वनवास से जब वापस आये तो उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था |
बाबा जी ने इस ऐतिहासिक सन्दर्भ का विश्लेषण करते हुए कहा कि राम जी अयोध्या लौटे तो अयोध्या में दीपोत्सव मनाया गया |राम जी का आगमन ख़ुशी का द्योतक था |
बाबा जी ने याद दिलाया कि एक ऐसा भी अवसर था जब रामजी तो अयोध्या में थे लेकिन अयोध्या में शोक व्याप्त था क्यूंकि रामजी को चौदह वर्ष तक वनवास में रहने का आदेश हुआ था |इस प्रकार रामजी के होते हुए भी अयोध्या में मायूसी थी |
इससे स्पष्ट है राम जी को हमारे दिलों में होना चाहिए |
बाबा जी का यह भी कहना था कि जब दशहरा मना लिया जाता है,तब दीपावली की तैयारी शुरू होती है |दशहरा अहंकार रूपी रावण पर सत्य की विजय का प्रतीक है |दीपावली समृद्धि और हर्ष का प्रतीक है इसका अर्थ है कि अहंकार पर विजय प्राप्त करके ही जीवन में हर्ष और समृद्धि का आगमन होता है |
बाबा जी कहा करते थे कि-
हरजी को अहंकार न भावै
अपने अनुभव से हम भली भाँति जानते हैं कि अहंकार पूर्णतः व्यर्थ है चूंकि हम अपने एक काले बाल को भी सफ़ेद होने से नहीं रोक सकते तो भी फिर अहंकार क्यों ?
अहंकार को खुद में प्रवेश करने से पहले ही हम सावधान हो जाएँ और उसे अपने भीतर प्रवेश न करने दें तो फिर जीवन में समृद्धि भी आएगी और हर्ष भी |भक्ति में तो अहंकार का प्रवेश वर्जित है |
हर्ष का आधार है समृद्धि और प्रेम |
प्रेम का आधार है -सत्यं वद,प्रियं वद |
प्रियं वद से पहले सत्य बोलने के लिए कहा गया है |विचारणीय तथ्य यह है कि सत्य बोलने से धर्म तो बच सकता है लेकिन प्रेम नहीं बच सकता क्यूंकि सत्य बोलने से प्रकट तौर पर वाणी को कोई कष्ट नहीं होता लेकिन सुनने वाले को अत्यंत कष्ट हो सकता है और वे आपकी जान के दुश्मन हो सकते हैं इसलिए निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी सत्य पर प्रकाश तो डालते थे लेकिन शब्द अत्यंत समन्वित रखते थे |
दीपावली के अवसर पर उन्हें कई बार कहते सुना है कि-
एक दीप बाहर कि-जग उजियारा हो
एक दीप भीतर कि-मन उजियारा हो
एक दीप देहरी पर कि-स्वागत तुम्हारा हो
एक दीप चौराहे पर कि-सबका सहारा हो
इस प्रकार भीतर से बाहर तक और घर से संसार तक प्रकाशित रखने पर पूरा जोर देते थे |
दीपावली अक्सर समागम से पहले आती रही है ,
वर्ष 2005 में ऐसे ही एक अवसर पर दीपावली के समागम में मुझे कविता पढ़ने का मौका मिला था |
आश्चर्य की बात यह थी कि उस दीपावली से दो -चार दिन पहले दिल्ली के सरोजिनी नगर मार्किट,गोविंद पुरी और पहाड़गंज में सीरियल बम ब्लास्ट हुए थे |यह एक दर्दनाक वाक्या था लेकिन वह एक सबक था जिससे मुझे लिखना पड़ा-
दीप पर्व पर बम धमाके ,देखके मुझको यूँ लगता है,
लाखों दीप जलाये लेकिन मन के दीप जला न पाए |
ग़ज़ल के शेष शेअर इस प्रकार थे -
साल अठावन हो गए हमको ,फिर भी मंजिल अगर दूर है ,
अपने मन को आओ टटोलें ,जहाँ कमी हो उसे हटायें |
अज्ञान अँधेरा हर सू फैला ,हाथ हाथ का बना है दुश्मन ,
हाथों में लें ज्ञान की माला ,इक दूजे को हम पहनाएं |
निंदा -नफरत,वैर- ईर्ष्या ,लगते गुण हैं ,मगर दोष हैं,
सहजता और सरलता से हम ,इन दोषों को दूर हटाएँ |
बहुत घने अंधकार को केवल ,इक दीपक की लो है काफी ,
झूठ भले शक्तिशाली हो,पर सच आगे,टिक न पाए |
जलना गर मन की फितरत है,जलो मगर दीपक की भाँति,
वैर-ईर्ष्या की अग्नि में ,जलकर ना जीवन झुलसाएं |
चक्रवात ,भूकंप ,बाढ़ ने ,बहुत कुलों के दीप बुझाये ,
कृपा करो हे स्वामी उनके घरों में भी उजियारा आये |
दीपक जग रोशन करता है,पर उसके नीचे अँधियारा ,
हम सूरज की भाँति खुद ,चमकें औरों को भी चमकाएं |लक्ष्मी भी हैं,नारायण भी ,अपनी तो हर रोज दिवाली ,
मन मंदिर में इन्हें बिठाकर ,पावन कर लें दसो दिशाएं |
छीना -झपटी ,उठापटक से,सन्तों की शोभा न होती ,
ज्ञान उजाला पाकर भी ना अंधकार में ठोकर खाएं |
धन्यवाद ,धन निरंकार जी