वे कुछ मायूस स्वर में बोले -लोग बाबा जी की बात मानते ही नहीं ,क्या किया जाए ?इस स्थिति में सत्संग में आने की इच्छा ही नहीं होती |
सत्संग से वापस आते हुए एक दिन वे गाडी में मिल गए |सत्संग में आने की अब उनकी इच्छा ही नहीं होती ,यह प्रश्न मेरे दिमाग में अब तक पड़ा हुआ था |
मैंने उनसे कहा कि आपके बगल में जो पार्क है ,वह बहुत सुन्दर है |आपकी गाडी तो वहीं से आती है कभी उसके दृश्यों को देखा है ? उनके बारे में आपका क्या ख्याल है ?
भाई साहब ,मेरे पास काम बहुत हैं इसलिए इन सबके लिए मेरे पास वक़्त नहीं है ,माफी चाहता हूँ |
मैंने कहा बगल में यह जो बिल्डिंग है ,इसमें कितने
ए सी लगे होंगे ?
वे ड्राइविंग कर रहे थे इसलिए मेरा कुरेदना उन्हें शायद अच्छा नहीं लगा इसलिए वे कुछ कुढ़ से गये |वे बोले -यह सब आप क्या कह रहे हैं ,अगर दफ्तर जाते समय मैं यह सब ही देखता रहा तो मेरी गाड़ी का क्या एक्सीडेंट नहीं हो जाएगा ?
मैंने कहा -एक्सीडेंट तो हो चुका है ,वे हैरानी भरे स्वर में बोले |
आप यह क्यों कह रहे हैं ?
सत्संग में गुरु के वचनो की तुला पर हमें खुद को तोलना चाहिए हैं ,जबकि आप दूसरों को तोलने में लग गए नहीं तो आपको कैसे पता लगता कि कौन गुरु के वचनो को मान रहा है और कौन नहीं मान रहा ?
उन्होंने कहा दुर्घटना होने की बात आपने क्यों कही ?a
मैंने कहा-आपने सत्संग में आना छोड़ दिया तो सत्संग में तो हमें गुरु के आशीर्वाद मिलते हैं |आशीर्वाद की ताक़त से बहुत सारे संकट कट जाते हैं ,वो ताक़त आप अब ले ही नहीं रहे तो इसे दुर्घटना ही तो कहेंगे |
महात्मा समझ गए कि वे कहाँ गलती कर रहे थे |संतुष्टि की बात तो यह रही कि अगले सप्ताह ही मैंने उन्हें सत्संग में देखा |