अजीब
विडम्बना है कि जो
खुद असभ्य हों उन्हें सभ्यता के उच्च प्रतिमान
और प्रेरक विभूतियों में प्रथम माना जा रहा है
और सचमुच सभ्य और प्रेरक जीवन
जीने वाले हैं उन्हें असभ्य और निंदनीय बताने
की चाल चली जा रही है
|
यह कोई आज हो रहा हो,ऐसा नहीं है बल्कि सदियों से यह होता आ रहा है ,जो स्वयं को मसीहा प्रकट करने में सक्षम हैं वे सभ्य और प्रतिष्ठित हैं और जो वैसी छवि नहीं बना पा रहे हैं वे सजा के हक़दार बने हुए हैं |
यह एक सोची समझी चाल है कि निर्दोष को कभी निर्दोष सिद्ध मत होने दो और दोषी को दोषी |ज़माने की चाल तो ऐसी ही रही है लेकिन ऐसी सत्ता हमारे बीच मौजूद है जो हमारे बोले हुए को ही नहीं हमारे इरादों पर भी चील जैसी नज़र रखती है |यह
ऐसी सत्ता है जो खुद
ही नज़र भी रखती है
और खुद ही न्याय भी
करती है इसलिए गरीबों
और लाचारों का यही अंतिम
सहारा है |
ऐसी
सत्ता का जब ध्यान
आता है तो पहला
ध्यान राजा भोज और विक्रमादित्य जैसे
न्यायाधीशों की तरफ जाता
है जिनकी आँखों पर पट्टियां नहीं
बंधी होती थी |जो किसी भी
लाचार को देखते तो
उसकी लाचारी का फायदा नहीं
उठाते थे बल्कि न्याय
करते थे |
लेकिन
ऐसी सत्ता सिर्फ कल्पना नहीं है क्यूंकि हमने
अपने बुजुर्गों से सुना है-निर्बल के बल राम
|
जो
निर्बल का बल राम
है धर्म और चालाकी का
गठबंधन करके लोगों ने इसे भी
अपनी वासना का औज़ार बना
लिया है |ऐसे लोग समझते हैं कि हम हमेशा
निष्कंटक रहेंगे |कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है |
छवि
निर्मित करके कोई ज़माने की आँख में
तो धूल झोंक सकता है लेकिन छवि
के सहारे परमात्मा को बरगलाना संभव
नहीं है क्यूंकि जो
स्वयं सत्य स्वरूप है इसे अँधेरे
में देखने के लिए किसी
टॉर्च की ज़रुरत नहीं
पड़ती |
उत्तिष्ठत
जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत
अर्थात
-उठो जागो और जब तक
तक नहीं पहुँचते आगे बढ़ते रहो | यथार्थ तो यह है
कि तत्वदर्शी होने का कोई विकल्प
नहीं है |अपनी आँखें खोलो और राममय हो
जाओ |मंदिर में जाकर बहुत पूजा कर ली,अब
तो खुद मंदिर बन जाना होगा
|