ग़ज़ल के तीन रंग...

1. ग़ज़ल  :

मेरे अश्कों की ये सदा सुन लो, 

तुमसे कहती है कुछ हवा सुन लो.

तुम ही कह दो कहाँ-कहाँ मैं झुकूं, 

वरना हो जाऊँगा खफ़ा सुन लो.

कब से बैठा हूँ राह-ए-उल्फत में, 

अब न करना कोई ख़ता सुन लो.

बुझती जाती शमां उम्मीदों की, 

अब तो आने को है कज़ा सुन लो.

ज़ख़्म नासूर बन के रिसने लगे, 

सिर्फ मिलना ही है दवा सुन लो.

"सूना" भटका फिरे है रातों में, 

कहीं मिल जाये रास्ता सुन लो.

- प्रकाश "सूना"


2. ग़ज़ल -

जिसमें  इंसानियत   बची   ही  नहीं    

आदमी   वो   है   आदमी   ही  नहीं

लग - रहा   देख कर     अँधेरों   को   

मेरी  क़िस्मत  में   रौशनी   ही  नहीं

मैं   तेरे  पास  कब  का   आ  जाता

छोड़ती   साथ    बेकसी     ही  नहीं

तिश्नगी     दूसरों    की    देखी   तो

अपने  हिस्से  की  मैंने  पी  ही नहीं

उसका जीना भी कोई जीना 'सुरेश'

जिस  बशर में  हो  सादगी  ही नहीं

- सुरेश मेहरा


3. ग़ज़ल -

तूफानों से याराना रखते है,
अपनी मुठ्ठी में जमाना रखते है,

दर्द से अपनी खूब है यारी लेकिन,
दिल में मुहब्बत का फसाना रखते है,

नजरो से धुंधला दिखता है फिर भी,
हम अपना अचूक निशाना रखते है,

बेशक बेघर हूं नही हुजरा कोई,
तेरे दिल में अपना ठिकाना रखते है,

माना कि अदावत के है पुजारी हम,
 चाहत का लबों पे तराना रखते है,

मशरूफ रहते है फिर भी अक्सर हम,
तेरी गली में आना जाना रखते है,

ये जमाना आगे निकल आया तो क्या,
हम अंदाज वही पुराना रखते है,

 दुख से नही है घबराते हम यारो,
दिल का मौसम तो सुहाना रखते है,

कद अपना "सागर" से भी है गहरा,
हम पर्वत से ऊंचा शाना रखते है,

- गोपी डोगरा "सागर"