दो अध्यात्मिक कवितायेँ

वक़्त का रहबर ये चाहता है हम दुनियाँ में प्यार फैलाएँ |

प्यार के बीज दिलों में बोकर एक अनोखी फ़सल उगाएँ |

नम्रता जल से सींच-सींचकर हर पौधे को हम महकाएँ |

समदृष्टि की खाद डालकर फ़सल को हम ख़ुशहाल बनाएँ |

सत्गुरु की किरपा बरसेगी प्यार की पैदावार बढ़ाएं...प्रीत नम्रता और समदृष्टि जीवन का आधार बनाएँ |


त्रैलोकी - मालिक होकर भी, ख़ुद को दास बताता आया |

प्रीत- नम्रता का ये मुजस्मा सब को प्रीत सिखाता आया |

धीरज से यह सब की सुनकर प्यार से गले लगाता आया |

अपनी मधुर मुस्कान बिखेर के सब के ग़म मिटाता आया |

इसकी इन्हीं अदाओं को सब, हम भी जीवन में अपनाएँ...प्रीत नम्रता और समदृष्टि जीवन का आधार बनाएँ |...


युग सुन्दर, सदियाँ सुन्दर ,गर मानव जीवन बन जाये सुन्दर | 

यही सदा अभिलाषा  रहती, है इस रहबर के दिल  अन्दर |

जहाँ प्यार है वहीं प्रभु है जहाँ प्रभु वो मन है मन्दिर |

देख रहा है खुली  आँख से सपना आज का ये पैग़म्बर |

आओ इसके सपने को  हम मिलजुल कर साकार बनाएँ...प्रीत नम्रता और समदृष्टि जीवन का आधार बनाएँ |...


सतगुर के सपने ही तो ,युग बदलने वाले होते हैं|

किसी और की ,कहाँ आँख में पलने वाले होते है| 

प्यार के दीप नही हर दिल में जलने वाले होते है |

अज्ञान अन्धेरे गुरु बिना नही ढलने वाले होते हैं |

इसके ज्ञान की धुन से  अपनी ,आओ हम पदचाप  मिलाएँ...प्रीत नम्रता और समदृष्टि जीवन का आधार बनाएँ |


आँख गुरु की से सब देखें तभी लगेंगे एक बराबर |

रंग- नस्ल के भेद ना होंगे जात-पात की फटेगी चादर |

बात समझ में आ जाएगी क़ुदरत का बस एक है कादर|

नफ़रत का विष उलट के फिर से ,प्यार से भरनी होगी  गागर|

स्वर्ग का नक़्शा बनेगी दुनिया ‘वेद’ अगर ये गुर अपनाएँ...प्रीत नम्रता और समदृष्टि जीवन का आधार बनाएँ |...

- श्रीमती वेद रहेजा

-----------------------------------------------------------------------------------------


ना कोई खिड़की ना रोशनदान यहाँ,

अजब तरह के होते यार! मकान यहाँ.

बड़े शहर की बातें होतीं बहुत बड़ी,

खुश्बू को भी तरसे हैं गुलदान यहाँ.

लोग परीशां हो जाते हैं सब घर के,

जब आ जाता है कोई मेहमान यहाँ.

ऐसे भी मंज़र देखे इन आँखों ने,

अपनों से ही अपने हैं अनजान यहाँ.

इक बेटे ने ठोकर मारी वालिद को,

कैसा ज़ालिम बन बैठा इंसान यहाँ.

ऐसा मौसम बदला है, हैरां हैं सब,

रोजाना ही आ जाता तूफान यहाँ.

'सूना' ऐसे मंज़र से गुजरे हैं हम,

खो बैठे हैं अपनी ही पहचान यहाँ.

- प्रकाश "सूना"