देश में बढ़ते बलात्कार -समाज व धर्म क्या निरर्थक नहीं हो गए हैं ?


हाथरस आज एक दर्दनाक घटना की वजह से सुर्ख़ियों में है जबकि कुछ साल पहले तक यह महान हास्य कवि प्रभुदयाल गर्ग अथवा काका हाथरसी के नाम से पूरी दुनिया में प्रख्यात था |


हाथरस आज हास्य के कारण नहीं,नारी उत्पीड़न के बेपनाह दर्द के कारण सुर्ख़ियों में है 


14 सितम्बर को वहां की दलित बालिका का अपहरण करके उसे यातनाएं दी गयीं जिनके बारे में लिखते हुए मेरी कलम को लिखते हुए शर्म आती है ,सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि इस प्रकरण की तुलना 2012 के निर्भया प्रकरण से की जा रही है |
लड़की जिस जाति से थी उसके बारे में यही कहना पर्याप्त है कि दलितों के अन्य वर्ग तक उन्हें अछूत मानते हैं अर्थात दलितों में भी अति दलित |


ऐसे साधनहीन परिवार की इज्जत को गांव के संपन्न बाहुबलियों के लड़कों ने बर्बाद कर दिया |सामूहिक बलात्कार ,रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गयी और जुबान भी काट डाली गयी |


यह सब लिखते हुए मैं मैं उस दर्द की कल्पना करके सिहर रहा हूँ ,जो उस साधनहीन लड़की ने भोगा होगा |


लेकिन यह अंत नहीं है,प्रशासन की सहानुभूति अपराधियों के साथ थी चूंकि उसने पहले तो प्राथमिकी ही दर्ज़ नहीं की |सोशल मीडिया पर मामला फैला तो पूरे घटनाक्रम को fake (झूठ) कह दिया गया |


सबसे दर्दनाक तो यह रहा कि लड़की का शव उसके परिवार को दिखाया तक नहीं गया और रात को लगभग दो बजे उसे अपमानित तरीके से जला दिया गया |बाहुबल इतना प्रबल है कि जिस रिपोर्टर लड़की ने इस सच्चाई को सबके सामने प्रस्तुत किया ,उसे भी लानतें दी जा रही हैं |


बड़े -बड़े अफसरों ने उसके परिजनों को धमकाया और पूरे मामले पर पर्दा डालने की पूरी कोशिश की |उसके बाद बलरामपुर और बुलंदशहर में भी ऐसे दुखद हादसे हुए |


इस बीच राजस्थान के कोटा में भी एक मामले की चर्चा हुई लेकिन उसे राजनीतिक सन्दर्भ में ज्यादा याद किया गया जबकि किसी भी लड़की या किसी भी उम्र की महिला के साथ ऐसे हादसे उसके जीवन पर ऐसा कलंक लगा देते हैं कि उसका जीवन कभी सामान्य हो ही नहीं पाता |


मेरी स्पष्ट धारणा है कि जिसने भी कभी यह दर्द झेला है,उसका शरीर ,मन और आत्मा कुंठा के ऐसे बोझ से दब जाते हैं कि वह बोझ कभी उतरता ही नहीं |


जब तक उसका जीवन रहता है,सांस-दर -सांस वह उस बोझ को ढोती रहती है |


होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन पीड़िता के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके दर्द पर मरहम रखने का काम करता लेकिन हमारे देश का तह दुर्भाग्य है कि जातीय पूर्वाग्रहों के नीचे सारे नैतिक सन्देश दब जाते हैं |जिन महान विभूतियों के नामो पर विभिन्न धर्मस्थल निर्मित किये जाते हैं उनकी शिक्षाओं पर वैसे तो फूल चढ़ाये जाते हैं लेकिन वास्तव में उन पर धुल डाली जाती है |राम जी ने तो भील जाति की शबरी को भी सम्मान दिया था लेकिन उन्हीं का नाम लेने वाले समाज के सबसे निचले वर्ग को प्रताड़ित करते हुए जरा भी संकोच नहीं करते चूंकि जाति विशेष का अभिमान उन्हें ,उन लोगों को इंसान के रूप में नहीं देखने देता |यही कारण है कि धर्मो और जातियों के नामो पर मानवता को कुचला जाता है |


प्रशासन का धर्मग्रन्थ है-भारत संविधान |वह संविधान मानव को मानवाधिकार देता है |इन अधिकारों की जब प्रशासन रक्षा नहीं कर पाता तो राजधर्म का लोप हो जाता है |


धर्मगुरु और समाज के मार्गदर्शकों के सामने यह एक बड़ा प्रश्न है कि देश की बेटियों के साथ यह अनाचार कब तक होता रहेगा ?यदि इसका उत्तर अनंत काल तक है तो मैं यह प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि फिर समाज व धर्म क्या निरर्थक नहीं हो गए हैं ?


शुक्र है कुछ राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सत्ता की मनमानी के विरुद्ध आवाज़ उठायी तो उच्च न्यायालय ने इस दर्द पर मरहम लगाने की कोशिश की लेकिन समाज व धर्म के सामने प्रश्चिन्ह तो लगा ही हुआ है |