हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर प्रगतिशील साहित्य मंच (दिल्ली) द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में पढ़ी गयी कवितायेँ (पांच)
हे दिव्य पुरुष अब जग जाओ

 


 

एक समर आज फिर हुआ शुरू

 

मानवता-मानव के मध्य-मध्य,

 

है चीख रही वैश्विक निजता

 

पाषाण पुरुष सा अंध-अंध।

 

कुटिल व्यूह को कर निर्मित

 

उपहास अश्रु का है करता

 

निज स्वार्थ तुच्छ हो वशीभूत

 

बन भुजंग सहिष्णुता को डसता।

 

विश्व धरा के पुष्प गुच्छ को

 

कलुषित कर तुमने रौद दिया

 

हे वसुधा के दिव्य पुरुष

 

वायस-स्पृहा क्यों है किया?

 

चहुंओर मृत्यु कर रहा नृत्य

 

खुद मृदंग बजा बन दैत्यारी

 

जो बोये हमने बीज धरा में

 

है फसल काटने की बारी!

 

है संदेश प्रकृत का मौन रूप

 

हे मानव,तुम मावन बन जाओ

 

ये धरती-गगन सभी के हैं

 

सबको निज-सा अपनाओं।।