हर कोई डरा-डरा सा है,
हर कोई थका-थका सा है ।
जाने कैसी चल पड़ी हवा,
हर कोई बुझा-बुझा सा है।
हो गया है कैसा यह चलन,
सीपियों में नाग पल रहे,
जिनके हाथों में गुलाब थे,
उपवनों को वो ही छल रहे,
अपनों से भी हो रही ठगी,
हर कोई ठगा-ठगा सा है।
पानी-पानी हो गया लहू,
नफ़रतों की बाढ़ आ गई,
सभ्यता में इतने डूबे हम,
नग्नता भी हमको भा गई,
हर किसी की खिड़कियाँ हैं बंद,
हर कोई जुदा-जुदा सा है।
शाख-शाख उल्लू बैठे हैं,
गीदडों की मौज आ रही,
जा छिपे हैं शेर माँद में,
भेड़ियों की फौज आ रही,
रात गहरी हो चली मगर,
हर कोई जगा-जगा सा है ।
धूआं-धूआं हो गया बदन,
सांसों की भी परखच्चे उड़े,
जितने ख़्वाब देखें थे सभी,
राख बनके भू पे हैं पड़े,
ज़िन्दगी में कौन किसका है,