-रामकुमार सेवक
धर्म में अनेक प्रकार के विरोधाभास हम देखते हैं जबकि श्रीकृष्ण ने जिस धर्म को बचाने की बात कही है,वह सत्य का है |इस मुकाम पर हम एक अजीब से दोराहे पर खड़े होते हैं जहाँ रास्ते अनेक मुँह बाए सामने खड़े हैं कि यह सच है या वह सच है ?
धर्म को इतना आसान विषय मान लिया गया है कि आम भारतीय इस पर अपनी मास्टरी मानने लगता है और खुद को विश्वगुरु समझने लगता है |उसे लगता है कि कोई न वाद उसकी मास्टरी को मान्यता दे ही देगा |
लेकिन यह मामला भौतिक नहीं है अन्यथा दो और दो चार की तरह निष्कर्ष निकालना किसी के लिए भी आसान हो जाता |
लेकिन अध्यात्म कोई गणित नहीं है कि धर्म को की कोई सीधी -सपाट व्याख्या की जा सके |
इस सम्बंन्ध में सम्पूर्ण अवतार बाणी की एक पंक्ति मुझे याद आती है |
सम्पूर्ण अवतार बाणी में युगपुरुष बाबा अवतार सिंह जी लिखते हैं-
कहे अवतार एह आप जे चाहे तां कोई एह नू वेख सके |
यह पंक्ति बहुत ही सरल है लेकिन इसमें जो बात कही गयी है वह शब्दों से ऊपर की बात है |बाबा अवतार सिंह जी ने इन पंक्तियों में परमात्मा के बारे में कहा है कि-सतगुरु के शरणागत होने के बावजूद हर कोई इसे अर्थात (परमात्मा को )देख नहीं सकता है अर्थात परमात्मा यदि स्वयं किसी को दर्शन देना चाहे तो ही कोई जिज्ञासु इस विराट सत्ता को देख सकता है |
अपना किया कछु न होय ,करे है राम होइ है सोय |
इस बात पर विश्वास करना कठिन है चूंकि न्यायालयों में दोषी सिद्ध कोई और होते हैं और सचमुच दोषी कोई और रहे होते हैं |
निरंकारी मंगलाचरण में स्पष्ट कहा गया है-
तू कर्ता है जगत का तू सबका आधार
अर्थात सब कुछ का कर्ता तो परमात्मा है फिर दोषी भी परमात्मा ही हुआ लेकिन परमात्मा सब कुछ करते हुए भी अलेपा है | पूरी दुनिया का निर्माता होने के बावजूद इसे कोई अभिमान नहीं है |यदि यह अनूठा विश्व मैंने बनाया होता तो मेरा अभिमान कितना बड़ा होता ,सहज ही सोचा जा सकता है |
बड़ा प्रश्न यह है कि सब कुछ हम ही करते हैं या परमेश्वर भी कुछ करता है ?
हम सड़क पर जा रहे हों और कुछ गलती हो जाए तो ट्रैफिक पुलिस का सिपाही हमारा चालान करता है |हम लाख दलील दें कि हमने कुछ नहीं किया क्यूंकि -अपने किये कछु न होय करे है राम सोइ सोइ होय |
पुलिस वाला हमारा चालान तो करेगा ही साथ ही वह हमें पागल भी घोषित कर सकता है |ज्यादा बोलें तो सरकारी काम में बाधा डालने की धारा भी लगा सकता है |प्रश्न उठता है कि कर्ता हम हैं या निरंकार ?कर्ता निरंकार है तो दंड हम पर क्यों ?
यह गहरी बात है इसका सही उत्तर पुलिस -पब्लिक के बीच नहीं अध्यात्म में मिलेगा |अध्यात्म कहता है कि -निरंकार निर्लिप्त है,अर्थात अलेपा है |
अलेपा इसलिए है क्यूंकि इसे किसी से मोह (लगाव) नहीं है |क्यूंकि यह काम ,क्रोध,लोभ ,मोह और अहंकार के वश में नहीं है |
असल में यह कोई शरीर नहीं है इसलिए निर्लिप्त है |इसने समुद्र बनाया लेकिन उससे कोई लगाव नहीं रखा | दूसरी और इंसान मकान बनवाता है तो उससे उसका लगाव रहता है |इस लगाव को ही साहित्यिक भाषा में मोह कहते हैं |
मोह के कारण ही हम खुद को मालिक समझने लगते हैं जबकि न हम कुछ लेकर आये और न अपने साथ कुछ ले जायेंगे |
इसीलिए काम,क्रोध ,लोभ ,मोह और अहंकार को विकार माना गया है |यदि विकार न हो तो निरंकार व साकार में कोई फर्क न रहे |इसीलिए निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी ने फ़रमाया -जितनी गहरी आसक्ति उतना गहरा दुःख |
यह निरंकार अनासक्त है इसलिए सब कुछ करके भी मुक्त है इसलिए अनासक्ति ही जीवन जीने का सही ढंग है |