नयी कविता के प्रणेता व प्रयोगधर्मी कवि - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय


  हिंदी साहित्य जगत के प्रमुख हस्ताक्षर रहे सुविख्यात उपन्यासकार, कथाकार, कवि, एवं आलोचक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की आज जयंती है। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पायी व इन भाषाओं का समुचित ज्ञान प्राप्त किया। विज्ञानं की पढ़ाई भी की।


  एक ओर 'नदी के द्वीप' एवं 'शेखर, एक जीवनी' उनके लोकप्रिय उपन्यास है, वहीं उनके उपन्यास 'कितनी नावों में कितनी बार' के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।


  एक कवि के तौर पर उन्हें नयी कविता के प्रणेता व एक प्रयोगधर्मी कवि के रूप में जाना जाता है। एक अवधि तक उन्होंने हिंदी पत्रिका 'दिनमान' का संपादन किया है व प्रतिनिधि काव्य संकलनों 'सप्तक' के संपादक के रूप में भी उन्हें जाना जाता हैस्वतंत्रतापूर्व, एक सैन्य अधिकारी के रूप में भी उन्होंने सेवाएं दी हैं।


  इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया, पुरातत्व – खुदाई शिविर में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी. एससी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकड़े गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत मेंप्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया । बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी, प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे |


  1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे, इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश - विदेश की यात्राएं की। जिसमें उन्हों ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम कियादिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। 1980 में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था।


  कविता संग्रह:- भग्नदूत (1933). चिन्ता (1942), इत्यलम् (1946), हरी घास पर क्षण भर (1949), बावरा अहेरी (1954), इन्द्रधनु रौंदे हुये ये (1957), अरी ओ कर्णा प्रभामय (1959), आँगन के पार द्वार (1961), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974). महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), प्रिजन डेज एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में, 1946) |



  • कहानियाँ:- विपथगा (1937), परम्परा 1944, कोठरीकी बात (1945), शरणार्थी (1948). जयदोल (1951)

  • उपन्यासः- शेखर एक जीवनी - प्रथम भाग (उत्थान) (1941), द्वितीय भाग (संघर्ष) (1944), नदीके द्वीप (1951). अपने अपने अजनबी (1961)

  • यात्रा वृतान्त:- अरे यायावर रहेगा याद? (1943), एक बूँद सहसा उछली (1960)।

  • निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्यः । एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल।

  • आलोचना:- त्रिशंकु (1945), आत्मनेपद (1960), भवन्ती (1971), अद्यतन (1971) ई. |

  • संस्मरणः स्मृति लेखा डायरियाः भवंती, अंतरा और शाश्वती।

  • विचार गद्यः संवत्सर

  • नाटक: उत्तरप्रियदर्शी


  संपादित ग्रंथः- आधुनिक हिन्दी साहित्य (निबन्ध संग्रह)1942, तार सप्तक (कविता संग्रह) 1943, दूसरा सप्तक (कविता संग्रह) 1951, तीसरा सप्तक (कविता संग्रह), सम्पूर्ण 1959, नये एकांकी 1952, रूपांबरा 1960 |


  उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध सर्जना और सन्दर्भ तथा केंद्र और परिधि नामक ग्रंथो में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी संपादक हैं। प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने यद्यपि कहानियां कम ही लिखीं और एक समय के बाद कहानी लिखना बिलकुल बंद कर दिया, परंतु हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ देने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे, जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया |


  दिल्ली में ही 4 अप्रैल 1987 को उनकी मृत्यु हुई। 1964 में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1978 में कितनी नावों में कितनी बार पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार


ऊषा जाग उठी प्राची में


आवाहन यह नूतन दिन का


उड़ चल हारिल लिये हाथ में


एक अकेला पावन तिनका!


-अज्ञेय


  4 अप्रैल 1987 को 76 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ था ।


  बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महान साहित्यकार को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि!